Class 9, Hindi

Class : 9 – Hindi : Lesson 3. उपभोक्तावाद की संस्कृति

संक्षिप्त लेखक परिचय

श्यामचरण दुबे हिंदी के प्रसिद्ध निबंधकार, समाजशास्त्री और चिंतक थे। उनका जन्म 1922 में मध्यप्रदेश के सीहोर जिले में हुआ था। उन्होंने समाजशास्त्र को साहित्य से जोड़ते हुए अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं पर गहन विचार प्रस्तुत किए। उनके लेखन की भाषा गंभीर, विश्लेषणात्मक और सहज बौद्धिकता से युक्त होती है।

उनकी रचनाओं में भारतीय समाज की संरचना, परंपरा, परिवर्तन और आधुनिकता का विश्लेषण मिलता है। वे अपने निबंधों में सामाजिक यथार्थ को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करते थे।

उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं: भारतीय समाज, विकास का समाजशास्त्र, परंपरा और आधुनिकता, संस्कृति और समाज आदि।
उनका निधन वर्ष 1996 में हुआ। वे आधुनिक सामाजिक चिंतन के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।

————————————————————————————————————————————————————————————————————————–

पाठ का विश्लेषण  एवं  विवेचन

‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ श्यामाचरण दुबे द्वारा लिखा गया एक गहन और विमर्शशील निबंध है, जो आधुनिक समाज में उपभोक्तावादी प्रवृत्तियों के उद्भव, प्रभाव और परिणतियों पर विचार करता है। लेखक अत्यंत संयत भाषा में यह प्रतिपादित करते हैं कि आज का मनुष्य केवल उपभोक्ता बनकर रह गया है। उसकी पहचान, मूल्य और मान्यताएँ अब उसके उपभोग की शक्ति से आँकी जाती हैं, न कि उसके नैतिक बोध या सामाजिक चेतना से।

उपभोक्तावाद की संस्कृति मूलतः पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था की उपज है, जिसने मनुष्य की आवश्यकताओं को कृत्रिम रूप से बढ़ाकर उन्हें उसकी इच्छाओं में बदल दिया है। जहाँ पहले आवश्यकता जीवन को सरल और संतुलित बनाती थी, वहीं अब इच्छाएँ कभी न पूरी होने वाली पिपासा बन गई हैं। बाज़ार ने इस संस्कृति को फैलाने में निर्णायक भूमिका निभाई है, जहाँ विज्ञापन, प्रचार और ब्रांडिंग के माध्यम से व्यक्ति को यह महसूस कराया जाता है कि वस्तुओं का उपभोग ही उसकी प्रतिष्ठा और प्रगति का मानक है।

लेखक विशेष रूप से इस बात पर बल देते हैं कि उपभोक्तावादी संस्कृति ने न केवल आर्थिक ढाँचे को प्रभावित किया है, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को भी गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त किया है। पहले जहाँ सादगी, संतोष और पारिवारिक जुड़ाव को महत्व दिया जाता था, वहीं अब प्रतिस्पर्धा, दिखावा और स्वार्थ ने इन मूल्यों को विस्थापित कर दिया है। मनुष्य अब रिश्तों की आत्मीयता से अधिक वस्तुओं के स्वामित्व में गौरव अनुभव करता है।

दुबे जी यह भी इंगित करते हैं कि उपभोक्तावाद केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मानसिकता का विषय बन गया है। शिक्षा, संस्कृति, कला, और यहां तक कि धर्म भी अब बाज़ार की भाषा बोलने लगे हैं। शिक्षा का उद्देश्य अब ज्ञान नहीं, बल्कि ‘करियर’ बन गया है। त्यौहारों में अब भक्ति की बजाय उपहारों और खरीदारी की धूम है।

यह स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि यह समाज को भीतर से खोखला कर रही है। लेखक एक सजग चिंतक की भाँति यह चेतावनी देते हैं कि यदि मनुष्य इस प्रवाह में स्वयं को पूरी तरह बहा देगा, तो वह अपनी मानवीयता, विवेक और आत्मा को खो बैठेगा।

अंततः, लेखक का संकेत स्पष्ट है — हमें इस संस्कृति को पूरी तरह नकारने की आवश्यकता नहीं, किंतु उसमें विवेक और संयम का समावेश करना होगा। केवल उपभोग ही जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। सच्चा विकास वही है जिसमें भौतिक समृद्धि के साथ-साथ नैतिक चेतना और आत्मिक संतुलन भी बना रहे।

यह निबंध केवल आलोचना नहीं करता, बल्कि आत्ममंथन का निमंत्रण देता है — कि हम सोचें, समझें और चुनें कि हम किस दिशा में जा रहे हैं, और क्या हम सच में ‘विकसित’ हो रहे हैं या केवल ‘वस्तु-भोगी’ बनते जा रहे हैं।

————————————————————————————————————————————————————————————————————————–

पाठ्यपुस्तक के प्रश्न


1. लेखक के अनुसार जीवन में ‘सुख’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर: लेखक के अनुसार जीवन में ‘सुख’ का अभिप्राय केवल उपभोग-सुख नहीं है. वास्तविक सुख में विभिन्न प्रकार के मानसिक, शारीरिक और सूक्ष्म आराम भी शामिल हैं. हार्दिक आनंद, मानसिक सुख-शांति, शारीरिक आराम और संतुष्टि ही वास्तविक सुख है. परंतु आजकल लोग केवल उपभोग के साधनों को भोगने को ही ‘सुख’ कहने लगे हैं. सुख की व्याख्या बदल गई है और अब उपभोग-भोग ही सुख माना जाता है.

2. आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है?
उत्तर: उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण हमारा दैनिक जीवन पूरी तरह से प्रभावित हो रहा है. इससे हमारी सांस्कृतिक पहचान, परंपराएं और आस्थाएं घटती जा रही हैं. हमारे सामाजिक संबंध संकुचित हो रहे हैं और मन में अशांति एवं आक्रोश बढ़ रहे हैं. आज हर तंत्र पर विज्ञापन हावी है, परिणामस्वरूप हम वही खाते-पीते और पहनते-ओढ़ते हैं जो विज्ञापन हमें कहते हैं. उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण हम धीरे-धीरे उपभोगों के दास बनते जा रहे हैं. सारी मर्यादाएं और नैतिकताएं समाप्त होती जा रही हैं तथा मनुष्य स्वार्थ-केंद्रित होता जा रहा है. अमीर-गरीब के मध्य दूरी बढ़ने से समाज के लोगों के मन में एक-दूसरे के प्रति अशांति और आक्रोश की बढ़ोतरी हो रही है.

3. लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है?
उत्तर: गांधी जी सामाजिक मर्यादाओं तथा नैतिकता के पक्षधर थे. वे चाहते थे कि लोग सदाचारी, संयमी और नैतिक बनें, ताकि लोगों में परस्पर प्रेम, भाईचारा और अन्य सामाजिक सरोकार बढ़े. लेकिन उपभोक्तावादी संस्कृति इस सबके विपरीत चलती है. वह भोग को बढ़ावा देती है जिसके कारण नैतिकता तथा मर्यादा का ह्रास होता है. गांधी जी चाहते थे कि हम भारतीय अपनी बुनियाद और अपनी संस्कृति पर कायम रहें. उपभोक्ता संस्कृति से हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास हो रहा है. उपभोक्ता संस्कृति से प्रभावित होकर मनुष्य स्वार्थ-केंद्रित होता जा रहा है. भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि यह बदलाव हमें सामाजिक पतन की ओर अग्रसर कर रहा है.
आशय स्पष्ट कीजिए

4. (क) जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
उत्तर: उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव अत्यंत कुशल तथा सूक्ष्म है. इसके प्रभाव में आकर हमारा चरित्र बदलता जा रहा है. हम उत्पादों का उपभोग करते-करते न केवल उनके गुलाम होते जा रहे हैं बल्कि अपने जीवन का लक्ष्य को भी उपभोग करना मान बैठे हैं. सही कहा जाए तो – हम उत्पादों का उपभोग नहीं कर रहे हैं, बल्कि उत्पाद हमारे जीवन का भोग कर रहे हैं. एक सूक्ष्म बदलाव आया है नई स्थिति में – उत्पाद तो आपके लिए हैं, पर आप यह भूल जाते हैं कि आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं.


(ख) प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हो।
उत्तर: सामाजिक प्रतिष्ठा विभिन्न प्रकार की होती है जिनके कई रूप तो बिलकुल विचित्र हैं. हास्यास्पद का अर्थ है – हंसने योग्य. अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए लोग ऐसे-ऐसे कार्य करते हैं जो देखने में हास्यास्पद लगते हैं. उदाहरण के लिए, घड़ी समय दिखाती थी, उसका काम चार-पांच सौ रुपए की घड़ी भी कर देती है, लेकिन हैसियत जताने के लिए लोग पचास-साठ हजार से लाख-डेढ़ लाख की घड़ी भी ले सकते हैं. ऐसी प्रतिष्ठा कितनी भी हास्यास्पद क्यों न हो, लोग इसे अपनाते हैं.
रचना और अभिव्यक्ति

5. कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी.वी. पर विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं? क्यों?
उत्तर: टी.वी. पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन बहुत सम्मोहक एवं प्रभावशाली होते हैं. वे हमारी आंखों और कानों को विभिन्न दृश्यों और ध्वनियों के सहारे प्रभावित करते हैं. वे हमारे मन में वस्तुओं के प्रति भ्रामक आकर्षण पैदा करते हैं. विज्ञापन और प्रसार के सूक्ष्म तंत्र हमारी मानसिकता बदल रहे हैं. उनमें सम्मोहन की शक्ति है, वशीकरण की भी. विज्ञापन देखकर लोग वस्तुओं की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देते. वे केवल विज्ञापनों से प्रेरित होकर उत्पाद खरीदने को तैयार हो जाते हैं.

6. आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन? तर्क देकर स्पष्ट करें।
उत्तर: वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए, विज्ञापन नहीं. विज्ञापन हमें गुणवत्ता वाली वस्तुओं का परिचय करा सकते हैं, लेकिन वे आकर्षक दृश्य दिखाकर गुणहीन वस्तुओं का प्रचार भी करते हैं. जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स से नहीं सुधरती. न बहुविज्ञापित शीतल पेयों से. पीज़ा और बर्गर कितने ही आधुनिक हों, हैं वे जंक फूड. हमारी निगाह उत्पादों की गुणवत्ता पर नहीं रह पाती. इसलिए वस्तु की गुणवत्ता को ही खरीदारी का आधार बनाना चाहिए, न कि विज्ञापन को.

7. पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही ‘दिखावे की संस्कृति’ पर विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर: आज दिखावे की संस्कृति पनप रही है. लोग प्रतिष्ठा चिह्न के रूप में महंगी वस्तुएं खरीदते हैं. हैसियत जताने के लिए लोग महंगी घड़ियां, संगीत सिस्टम, कंप्यूटर आदि खरीदते हैं, चाहे उन्हें इनकी जरूरत हो या न हो. संभ्रांत महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हजार की सौंदर्य सामग्री होना मामूली बात है. पेरिस से परफ्यूम मंगाया जाता है. ये प्रतिष्ठा चिह्न हैं, समाज में हैसियत जताते हैं. पांच सितारा होटल, पांच सितारा अस्पताल, पांच सितारा पब्लिक स्कूल – सभी दिखावे की संस्कृति के प्रतीक हैं. यह संस्कृति समाज में वर्गों की दूरी बढ़ा रही है और सामाजिक असंतुलन पैदा कर रही है.

8. आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों को किस प्रकार प्रभावित कर रही है? अपने अनुभव के आधार पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर: आज की उपभोक्ता संस्कृति ने हमारे त्योहारों और रीति-रिवाजों को पूरी तरह बदल दिया है. दीवाली, होली, दुर्गा पूजा जैसे त्योहार अब बाजार की मांग बन गए हैं. त्योहारों से पहले बाजार में भारी छूट की घोषणा होती है. लोग त्योहार के नाम पर अनावश्यक खरीदारी करते हैं. शादी-विवाह में दिखावे की प्रतिस्पर्धा चरम पर है. पारंपरिक खान-पान की जगह फास्ट फूड ने ले ली है. त्योहारों का आध्यात्मिक पक्ष गायब होता जा रहा है और उसकी जगह भौतिकता हावी हो रही है. गिफ्ट देना-लेना, महंगे कार्ड भेजना, डिजाइनर कपड़े पहनना – ये सब उपभोक्ता संस्कृति के प्रभाव हैं. हमारी सांस्कृतिक परंपराएं व्यावसायीकरण का शिकार हो रही हैं.

भाषा-अध्ययन

(क) ऊपर दिए गए उदाहरण को ध्यान में रखते हुए क्रिया-विशेषण से युक्त पांच वाक्य पाठ में से छांटकर लिखिए।
उत्तर: पाठ से क्रिया-विशेषण युक्त वाक्य:
धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है।
विलासिता की सामग्रियों से बाजार भरा पड़ा है, जो आपको लुभाने की जी तोड़ कोशिश में निरंतर लगी रहती हैं।
आज दो आधे से निरंतर बारिश हो रही है।
वे हमारी आंखों और कानों को विभिन्न दृश्यों और ध्वनियों के सहारे निरंतर प्रभावित करते हैं।
जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी।

(ख) धीरे-धीरे, शोर से, लगातार, हमेशा, आजकल, कम, ज्यादा, यहां, उधर, बाहर – इन क्रिया-विशेषण शब्दों का प्रयोग करते हुए वाक्य बनाइए।
उत्तर:
👉धीरे-धीरे – बच्चा धीरे-धीरे चलना सीख रहा है।
👉शोर से – बच्चे कक्षा में शोर से बात कर रहे थे।
👉लगातार – आज लगातार वर्षा हो रही है।
👉हमेशा – वह हमेशा समय पर आता है।
👉आजकल – आजकल गर्मी बहुत पड़ रही है।
👉कम – आजकल दूध कम मिल रहा है।
👉ज्यादा – उसने आज ज्यादा खाना खाया।
👉यहां – यहां बहुत शांति है।
👉उधर – उधर से आवाज आ रही है।
👉बाहर – बच्चे बाहर खेल रहे हैं।

(ग) नीचे दिए गए वाक्यों में से क्रिया-विशेषण और विशेषण शब्द छांटकर अलग लिखिए:
👉कल रात से निरंतर बारिश हो रही है।
क्रिया-विशेषण: निरंतर
विशेषण: कोई नहीं
👉पेड़ पर लगे पके आम देखकर बच्चों के मुंह में पानी आ गया।
क्रिया-विशेषण: कोई नहीं
विशेषण: पके
👉रसोईघर से आती पुलाव की हल्की खुशबू से मुझे जोरों की भूख लग आई।
क्रिया-विशेषण: जोरों
विशेषण: हल्की
👉उतना ही खाओ जितनी भूख है।
क्रिया-विशेषण: उतना, जितनी
विशेषण: कोई नहीं
👉विलासिता की वस्तुओं से आजकल बाजार भरा पड़ा है।
क्रिया-विशेषण: आजकल
विशेषण: विलासिता की

————————————————————————————————————————————————————————————————————————–

अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न


1–7: बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQs) – उत्तर सहित
1. ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ के लेखक कौन हैं?
A. प्रेमचंद
B. रामविलास शर्मा
C. नामवर सिंह
D. श्यामचरण दुबे
उत्तर: D. श्यामाचरण दुबे


2. उपभोक्तावाद का मुख्य उद्देश्य क्या है?
A. नैतिकता बढ़ाना
B. संतोष का भाव पैदा करना
C. अधिक से अधिक वस्तुओं की खपत बढ़ाना
D. शिक्षा को बढ़ावा देना
उत्तर: C. अधिक से अधिक वस्तुओं की खपत बढ़ाना


3. उपभोक्तावादी संस्कृति किस पर आधारित है?
A. त्याग और सेवा पर
B. संयम और सादगी पर
C. विज्ञापन और दिखावे पर
D. समाज सेवा पर
उत्तर: C. विज्ञापन और दिखावे पर


4. लेखक के अनुसार आधुनिक संस्कृति किस ओर जा रही है?
A. अध्यात्म की ओर
B. विचारशीलता की ओर
C. उपभोक्तावाद की ओर
D. सरलता की ओर
उत्तर: C. उपभोक्तावाद की ओर


5. उपभोक्तावादी संस्कृति में व्यक्ति किसका शिकार बनता है?
A. आत्मबल का
B. ज्ञान का
C. विज्ञापन और बाज़ार का
D. धर्म का
उत्तर: C. विज्ञापन और बाज़ार का


6. लेखक ने उपभोक्तावादी संस्कृति को किससे जोड़ा है?
A. नैतिक पतन से
B. औद्योगिक विकास से
C. शारीरिक श्रम से
D. आध्यात्मिक उन्नति से
उत्तर: A. नैतिक पतन से


7. उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव किस पर नहीं पड़ा है?
A. शिक्षा
B. साहित्य
C. राजनीति
D. अध्यात्म
उत्तर: D. अध्यात्म

8–14: अति लघु उत्तरीय प्रश्न (एक पंक्ति/शब्द में उत्तर दीजिए)
8. उपभोक्तावाद का मुख्य आधार क्या है?
उत्तर: विज्ञापन और आकर्षक प्रस्तुति


9. लेखक ने किस संस्कृति की आलोचना की है?
उत्तर: उपभोक्तावादी संस्कृति


10. उपभोक्तावादी संस्कृति में किस भावना का अभाव होता है?
उत्तर: संतोष और संयम


11. उपभोक्तावादी संस्कृति किस वर्ग को अधिक प्रभावित करती है?
उत्तर: मध्यम वर्ग


12. लेखक का उद्देश्य क्या है?
उत्तर: उपभोक्तावादी प्रवृत्ति की आलोचना


13. विज्ञापन किसे आकर्षित करते हैं?
उत्तर: आम उपभोक्ता को


14. लेखक के अनुसार व्यक्ति की वास्तविक आवश्यकता क्या है?
उत्तर: विवेकपूर्ण उपभोग

15–18: लघु उत्तरीय प्रश्न (50–60 शब्दों में उत्तर दीजिए)
15. लेखक ने उपभोक्तावादी संस्कृति की आलोचना क्यों की है?
उत्तर: लेखक ने उपभोक्तावादी संस्कृति की आलोचना इसलिए की है क्योंकि यह व्यक्ति को वस्तुओं का गुलाम बना देती है। यह संस्कृति दिखावे, भौतिकता और तुच्छ इच्छाओं को बढ़ावा देती है, जिससे व्यक्ति का आत्मिक विकास रुक जाता है और समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है।

16. उपभोक्तावादी संस्कृति का मध्यम वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर: मध्यम वर्ग विज्ञापनों और दिखावे से अत्यधिक प्रभावित होकर अपने साधनों से अधिक खर्च करता है। वह ऋण लेकर भी आधुनिक वस्तुएँ खरीदने का प्रयास करता है, जिससे मानसिक तनाव और सामाजिक प्रतिस्पर्धा बढ़ती है।

17. विज्ञापन उपभोक्तावादी प्रवृत्ति को कैसे बढ़ावा देते हैं?
उत्तर: विज्ञापन उपभोक्ताओं को यह विश्वास दिलाते हैं कि बिना किसी विशेष वस्तु के उनका जीवन अधूरा है। यह उनके मन में नकली आवश्यकताएँ पैदा करते हैं, जिससे वे अनावश्यक वस्तुएँ खरीदने को प्रेरित होते हैं।

18. उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण समाज में कौन-से परिवर्तन आए हैं?
उत्तर: समाज में भौतिकता, प्रतिस्पर्धा, दिखावा, ऋण संस्कृति और नैतिक ह्रास जैसे परिवर्तन देखने को मिलते हैं। व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हो गया है और सामाजिक मूल्य गौण हो गए हैं।

19–20: दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (120–150 शब्दों में उत्तर दीजिए)
19. उपभोक्तावादी संस्कृति व्यक्ति के जीवन को किस प्रकार प्रभावित करती है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: उपभोक्तावादी संस्कृति व्यक्ति को बाहरी आकर्षणों का शिकार बनाकर उसे मानसिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से अस्थिर करती है। व्यक्ति आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ खरीदने के लिए उकसाया जाता है, जिससे उसकी आत्मनिर्भरता, संतोष और विवेक क्षीण हो जाते हैं। उदाहरणतः, एक मध्यमवर्गीय परिवार जो साधारण मोबाइल से भी काम चला सकता है, विज्ञापन देखकर महंगा मोबाइल खरीद लेता है, जिससे उस पर ऋण और मानसिक दबाव बढ़ता है। इस संस्कृति में व्यक्ति की पहचान उसके उपभोग के स्तर से आँकी जाती है, जिससे नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है। लेखक इस प्रवृत्ति को खतरनाक मानते हैं और विवेकपूर्ण उपभोग की सलाह देते हैं।

20. ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ से हमें क्या शिक्षाएँ मिलती हैं?
उत्तर: इस पाठ से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपनी आवश्यकताओं को पहचानकर ही उपभोग करना चाहिए। दिखावे और विज्ञापनों के प्रभाव से बचना चाहिए। लेखक ने उपभोक्तावादी संस्कृति की आलोचना करके यह बताया कि यह संस्कृति व्यक्ति को आत्महीन, ऋणग्रस्त और तनावग्रस्त बना देती है। यह न केवल व्यक्तिगत स्तर पर नुकसानदायक है, बल्कि समाज में असमानता और नैतिक पतन को भी बढ़ावा देती है। हमें संयम, विवेक और संतोष जैसे मूल्यों को अपनाकर संतुलित जीवन जीना चाहिए। वास्तविक सुख बाह्य वस्तुओं में नहीं, बल्कि मानसिक संतुलन और आत्मिक संतोष में निहित होता है।

————————————————————————————————————————————————————————————————————————–

Leave a Reply