Class 12 : हिंदी साहित्य – अध्याय 8.विद्यापति
संक्षिप्त लेखक परिचय
🔹 जीवन परिचय:-
🌸 15वीं शताब्दी के महान कवि विद्यापति ठाकुर का जन्म मिथिला (वर्तमान बिहार) में हुआ।
🌟 वे दरभंगा के राजा शिवसिंह के दरबारी कवि थे।
📜 संस्कृत, अवहट्ट, मैथिली और ब्रजभाषा के अद्वितीय विद्वान।
💖 “मैथिल कोकिल” के नाम से प्रसिद्ध, उन्होंने प्रेम, भक्ति और नीति पर आधारित अनगिनत रचनाएँ कीं।
✨ साहित्यिक योगदान:-
🌼 विद्यापति को मैथिली काव्य का अमर गायक कहा जाता है।
💫 उनकी रचनाओं में श्रृंगार, भक्ति और नीति का अद्वितीय संगम मिलता है।
🎶 श्रृंगार काव्य में राधा–कृष्ण के दिव्य प्रेम का माधुर्यपूर्ण, संवेदनशील और कोमल चित्रण किया गया है।
🙏 भक्ति काव्य में भगवान शिव के प्रति अनन्य प्रेम, भक्ति और समर्पण का अद्वितीय रूप दिखाई देता है, जैसे – “जय जय भैरव” और “शिव स्तुति”।
📖 उनकी प्रमुख रचनाएँ – पदावली, पुरुष परीक्षा, कीर्ति लता, कीर्ति पताका, भव विलास।
🌷 भाषा की कोमलता, भावों की गहराई और अलंकारों का सजीव प्रयोग उनकी पहचान है।
🌟 विद्यापति का साहित्य आज भी हिंदी, मैथिली और बंगाली साहित्य में प्रेरणा, माधुर्य और भक्ति का शाश्वत स्रोत है।
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पाठ का विश्लेषण एवं विवेचन

🌸 पद-1
के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास। हिए नहि सहए असह दुख रे भेल साओन मास॥ एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए। सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए॥ मोर मन हरि हरि लए गेल रे अपनो मन गेल। गोकुल तजि मधुपुर बस रे कत अपजस लेल॥ विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस। आओत तोर मनभावन रे एहि कातिक मास॥
💠 व्याख्या –
🌧️ विरहिणी राधा सखी से कहती है—“मेरे पत्र को कृष्ण तक पहुँचाने वाला कोई नहीं।”
🌿 सावन की बूंदों के साथ घटाएँ उमड़ती हैं; इस ऋतु में विरह “असह दुख” बन जाता है।
🏠 अकेले घर में रहने से मन घुटता है; पराया व्यक्ति उसकी पीड़ा को समझेगा भी नहीं।
💔 वह मानती है कि कृष्ण ने उसका हृदय चुरा लिया और स्वयं भी दिल-ओ-दिमाग से दूर चले गये।
🏙️ गोकुल छोड़कर मथुरा बसना उनके लिए बदनामी का कारण बनेगा—इतनी नाराज़गी के बावजूद आशा नहीं टूटती।
🌼 कवि के शब्दों में सखी को विश्वास दिलाया जाता है कि कार्तिक-मास में मन-भावन अवश्य लौटेगा।
✨ पद में नायिका की अतृप्त आकुलता, सामाजिक उपेक्षा का बोध, तथा अंतिम पंक्ति का संधान-संतोष तीनों गतियाँ एक साथ चलती हैं, जिससे विरह-चित्र गहन हो उठता है।
🌸 पद-2
सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए। सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल-तिल नूतन होए॥ जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल॥ सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति-पथ परस न गेल॥ कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि॥ लाख-लाख जुग हिअ-हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल॥ कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख॥ विद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मीलल एक॥
💠 व्याख्या –
💖 सखी प्रेम-रस का स्वाद पूछती है; नायिका उत्तर देती है कि प्रेम-अनुराग शब्दों की परिधि से बाहर है—वह “तिल-तिल नूतन”, प्रतिपल नया रूप लेता है।
👀 जन्म से अब तक प्रियतम को निहारते-निहारते भी आँखें भर नहीं पाईं, न मधुर वचन सुन-सुनकर कान तृप्त हो सके।
🌸 कितनी वसंत-रातें साथ गुज़रीं; फिर भी केलि (रति-लीला) का रहस्य अबूझ ही रह गया।
🔥 हृदय में उन्हें लाखों युगों से सँजोकर रखने पर भी अंतर-ज्वाला शांत नहीं होती—यह अनन्त आकांक्षा प्रेम के पारलौकिक चरित्र को रेखांकित करती है।
🌿 रसिक जन भोग तो करते हैं पर अनुभव की गहराई नहीं छूते; अतः प्राण-रक्षा के लिए भी ऐसा अनुभव लाखों में एक को ही मिलता है।
✨ पद संवेदनाओं के अतिशय सूक्ष्म खरापन, दर्शन-श्रवण-स्पर्श की अपूर्णता और वासना-रहित परिपूर्ण प्रेम की सम्भावना को एक साथ उभारता है।
🌸 पद-3
कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि, मूदि रहए दु नयान। कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि, कर देइ झाँपइ कान॥ माधब, सुन-सुन बचन हमारा। तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूबरि, गुनि-गुनि प्रेम तोहारा॥ धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ, पुनि तहि उठइ न पारा। कातर दिठि करि, चौदिस हेरि-हेरि, नयन गरए जल-धारा॥ तोहर बिरह दिन छन-छन तनु छिन, चौदसि-चाँद-समान। भनइ विद्यापति सिबसिंह नर-पति, लखिमादेइ-रमान॥
💠 व्याख्या –
🌺 वसंत में खिले बन और कोयल-भौंरे का कलरव राधा के लिए यातनामय हो उठता है।
🌸 कमलमुखि होने पर भी नेत्र मूँद लेती है, कान ढँक लेती है, क्योंकि हर सुगंध-स्वर कृष्ण-स्मृति को दहकाता है।
🕊️ वह पुकारती है—“हे माधव! तुम्हारे गुण मन-ही-मन दोबला (क्षीण) कर रहे हैं; उन्हें याद-यादकर देह-मन निःताड़ित है।”
🌏 धरती पर बैठ-बैठ कर वह उठ न सकने की-सी दैन्यावस्था को प्राप्त है; चतुर्दिक खोजती रहती है पर प्रिय दृष्टिगोचर नहीं।
💧 आँखों से निरंतर अश्रुधारा बहती है।
🌙 विरह-व्यथा में उसका शरीर क्षण-क्षण घटता है, जैसे चौदसि-चाँद की कलाएँ क्षीण होती जाती हैं—यह रूपक विरहजन्य तन-मन-क्षय की अत्यंत मार्मिक छवि गढ़ता है।
✨ पद प्रकृति के उल्लास और नायिका के विषाद के तीखे विरोध से उत्पन्न द्विगुण आवेग को दर्शाता है; अन्तिम दो पंक्तियाँ आत्म-विलाप के साथ भक्तिपूर्ण पुकार का मिश्रण भी सूचित करती हैं।
💎 संयुक्त अवलोकन –
🌿 तीनों पद मिलकर कृष्ण-राधा प्रेम के वियोग-पक्ष को क्रमशः
1️⃣ आशंकित प्रतीक्षा
2️⃣ अतृप्त अनुराग
3️⃣ प्रकृति-सम्वर्द्धित पीड़ा
के सोपानों में विभक्त करते हैं।
🌧️ सावन का घन, 🌸 अनुतृप्त नयन और 🎶 वसंत का कलरव—सब प्रेम-विरह के पर्याय बन जाते हैं, जिनमें सहज मैथिली लय ओझल संवेदना को भी मूर्त कर देती है।
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पाठ्यपुस्तक के प्रश्न
🌸 प्रश्न 1. प्रियतमा के दुख के क्या कारण हैं?
💠 उत्तर: प्रियतमा (राधा) के दुख के निम्नलिखित कारण हैं:
🌧️ सावन मास में विरह की तीव्रता – वर्षा ऋतु का सावन मास आने से नायिका की विरह-व्यथा असहनीय हो जाती है। यह ऋतु प्रेमी-युगलों के मिलन का समय मानी जाती है, अतः अकेली नायिका के लिए यह और भी कष्टकारी है।
💔 प्रियतम की अनुपस्थिति – कृष्ण गोकुल छोड़कर मथुरा चले गए हैं, जिससे राधा अकेली रह गई है।
🏠 एकाकी जीवन की समस्या – अकेले घर में रहना उसके लिए असहनीय है। प्रियतम के बिना घर काटने को दौड़ता है।
💖 मन का हरण – कृष्ण उसका मन भी अपने साथ ले गए हैं, जिससे वह पूर्णतः खाली और बेसहारा महसूस कर रही है।
📜 संदेश पहुंचाने की समस्या – वह अपनी पीड़ा का संदेश प्रियतम तक भेजना चाहती है, किंतु कोई संदेशवाहक नहीं मिल रहा।
🌸 प्रश्न 2. कवि ‘नयन न तिरपित भेल’ के माध्यम से विरहिणी नायिका की किस मनोदशा को व्यक्त करना चाहता है?
💠 उत्तर: इस पंक्ति के माध्यम से कवि नायिका की अतृप्त प्रेम-भावना और दर्शन की अपूर्णता को व्यक्त करना चाहता है:
👀 जन्मभर देखकर भी अतृप्ति – नायिका कहती है कि उसने जन्म से अब तक प्रियतम के रूप को निहारा है, फिर भी उसकी आंखें तृप्त नहीं हुईं।
🌸 प्रेम की नित्य नवीनता – सच्चा प्रेम हमेशा नया लगता है, इसलिए कितना भी देखो, मन भर नहीं पाता।
🔥 अनंत आकांक्षा का भाव – यह दर्शाता है कि प्रेम में व्यक्ति कभी संतुष्ट नहीं होता; प्रेम की प्यास बढ़ती ही जाती है।
💎 प्रेम की गहनता – जितना देखते हैं, उतनी ही और देखने की इच्छा होती है।
🌸 प्रश्न 3. नायिका के प्राण तृप्त न हो पाने के कारण अपने शब्दों में लिखिए।
💠 उत्तर: नायिका के प्राण तृप्त न होने के मुख्य कारण हैं:
🌼 प्रेम का प्रतिक्षण नूतन होना – प्रेम स्थिर नहीं है; यह हर पल नया रूप लेता है, जिससे नवीनता बनी रहती है।
✨ अनुभव की अवर्णनीयता – प्रेम का अनुभव इतना गहरा और सूक्ष्म है कि इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
♾️ असीम प्रेम की प्रकृति – सच्चा प्रेम कभी पूरा नहीं होता; यह अनंत होता है।
👀 दर्शन-श्रवण की अपूर्णता – न तो प्रियतम को देखकर आंखें तृप्त होती हैं, न मधुर वचन सुनकर कान।
🌙 रसकेलि की अतृप्ति – कई मधुर रातें बिताने के बाद भी रति-लीला का रहस्य अबूझ रह जाता है।
🌸 प्रश्न 4. ‘सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल-तिल नूतन होए’ से लेखक का क्या आशय है?
💠 उत्तर: इस पंक्ति से कवि का आशय है:
🌸 प्रेम की नित्य नवीनता – प्रेम और अनुराग का वर्णन करते समय यह प्रतिपल (तिल-तिल) नया होता जाता है।
🔄 प्रेम का गतिशील स्वरूप – प्रेम कोई स्थिर भाव नहीं है; यह निरंतर परिवर्तित होता रहता है।
✨ अवर्णनीय प्रकृति – प्रेम को पूर्णतः व्यक्त करना असंभव है क्योंकि यह हर क्षण नया आयाम लेता है।
🎭 अनुभव की जटिलता – प्रेम का अनुभव इतना जटिल और बहुआयामी है कि इसे एक निश्चित रूप में बांधा नहीं जा सकता।
🌸 प्रश्न 5. कोयल और भौरों के कलरव का नायिका पर क्या प्रभाव पड़ता है?
💠 उत्तर: कोयल और भौरों के कलरव का नायिका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है:
💔 विरह-वेदना की वृद्धि – प्राकृतिक सुंदरता और मधुर ध्वनियां उसकी विरह-पीड़ा को और बढ़ा देती हैं।
🙉 कान बंद करने पर मजबूरी – वह कोयल के कूजन और भौरों के गुंजन को सुनकर अपने कान बंद कर लेती है।
🌸 कृष्ण-स्मृति का जागना – ये मधुर आवाजें उसे कृष्ण की याद दिलाती हैं, जिससे वियोग और तीव्र हो जाता है।
⚡ प्रकृति से विरोध – सामान्यतः आनंददायक प्राकृतिक दृश्य उसके लिए कष्टकारी बन जाते हैं।
🔥 अवांछित उद्दीपन – ये ध्वनियां उसकी कामना को जगाती हैं जबकि प्रियतम पास नहीं है।
🌸 प्रश्न 6. कातर दृष्टि से चारों तरफ प्रियतम को ढूंढने की मनोदशा को कवि ने किन शब्दों में व्यक्त किया है?
💠 उत्तर: कवि ने इस मनोदशा को निम्न शब्दों में व्यक्त किया है:
“कातर दिठि करि, चौदिस हेरि-हेरि, नयन गरए जल-धारा।”
इन शब्दों का अर्थ है:
😢 कातर दिठि करि – दुःखभरी, व्याकुल दृष्टि से
👀 चौदिस हेरि-हेरि – चारों दिशाओं में बार-बार खोजना
💧 नयन गरए जल-धारा – आंखों से निरंतर आंसुओं की धारा बहना
🌸 प्रश्न 7. निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए:
💠 उत्तर:
तिरपित = तृप्त
छन = क्षण
बिदगध = विदग्ध
निहारल = निहारना
पिरिति = प्रीति
साओन = श्रावण
अपजस = अपयश
छिन = क्षीण
तोहारा = तुम्हारा
कातिक = कार्तिक
🌸 प्रश्न 8. एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए। सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए॥
💠 उत्तर:
भावार्थ: नायिका सखी से कह रही है कि प्रियतम के बिना अकेले घर में रहना मेरे लिए असंभव हो गया है। मेरा यह दारुण दुख इतना गहरा है कि संसार का कोई भी व्यक्ति इसे समझ नहीं सकता।
मुख्य बिंदु:
🏠 एकाकीपन की पीड़ा
💔 विरह की असहनीयता
✨ दुख की अवर्णनीयता
🌏 सामाजिक उदासीनता का बोध
🌸 प्रश्न 9. जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल॥
💠 उत्तर:
भावार्थ: मैंने जन्म से लेकर अब तक (पूरे जीवनकाल में) अपने प्रियतम के सुंदर रूप को निहारा है, फिर भी मेरी आंखें तृप्त नहीं हुईं।
मुख्य संदेश:
💖 प्रेम की अतृप्ति
👀 दर्शन की अपूर्णता
♾️ प्रेम की अनंतता
🌸 सौंदर्य के प्रति निरंतर आकर्षण
🌸 प्रश्न 10. कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि, मूदि रहए दु नयान। कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि, कर देइ झाँपइ कान॥
💠 उत्तर:
भावार्थ: हे कमल के समान मुखवाली (राधा)! फूलों से भरे वन को देखकर तुम अपनी आंखें बंद कर लेती हो। कोयल की मधुर आवाज और भौरों का गुंजन सुनकर तुम अपने कानों को हाथों से ढक लेती हो।
मुख्य भाव:
🌸 प्रकृति की सुंदरता से विरोध
💔 विरह-वेदना में वृद्धि का डर
🌼 प्राकृतिक सौंदर्य का उद्दीपन प्रभाव
🕊️ कृष्ण-स्मृति से बचने का प्रयास
🌸 प्रश्न 11. पठित पाठ के आधार पर विद्यापति के काव्य में प्रयुक्त भाषा की पांच विशेषताएं उदाहरण सहित लिखिए।
💠 उत्तर:
📝 मैथिली भाषा का प्रयोग – सभी पद शुद्ध मैथिली में रचित हैं
📌 उदाहरण: “के पतिआ लए जाएत रे”, “नयन न तिरपित भेल”
🎶 संगीतात्मकता और लयबद्धता – गेय पदों में प्राकृतिक संगीत
📌 उदाहरण: “तिल-तिल नूतन होए”, “चौदिस चाँद समाना”
✨ अलंकारों का सटीक प्रयोग –
अनुप्रास: “मोर मन”, “हरि हर”
यमक: “हरि हर” (कृष्ण और हरण करना)
उपमा: “चौदसि चाँद समाना”
🌿 सरल और सहज अभिव्यक्ति – जटिल संस्कृत शब्दों के स्थान पर देशज शब्दावली
📌 उदाहरण: “असह दुख”, “कातर दिठि”
💎 भावानुकूल शब्द चयन – भाव के अनुरूप शब्द प्रयोग
📌 उदाहरण: विरह के लिए “दारुन दुख”, प्रेम के लिए “अनुराग”
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अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न
🌟 I. बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQ)
1️⃣ निम्नलिखित में से कौन-सा अलंकार “के पतिआ लए जाएत रे…” पद में स्पष्टतः देखने को मिलता है?
(A) अनुप्रास (B) उत्प्रेक्षा (C) हृदयालंकार (D) उपमा
✅ उत्तर: (A) अनुप्रास
2️⃣ “तिल-तिल नूतन होए” पंक्ति में ‘तिल-तिल’ से क्या अभिप्राय है?
(A) क्षण-क्षण (B) स्पर्श-स्पर्श (C) दर्शन-दर्शन (D) श्रोताओं की भीड़
✅ उत्तर: (A) क्षण-क्षण
3️⃣ किस ऋतु का वर्णन “सावन मास” के साथ विरह-पीड़ा के संवर्धक के रूप में किया गया है?
(A) ग्रीष्म (B) शरद (C) सावन (D) बसंत
✅ उत्तर: (C) सावन
4️⃣ कौन-सा भाव “कोकिल-कलरव” सुनकर नायिका अनुभव करती है?
(A) आनन्द (B) वियोग (C) शांति (D) उत्साह
✅ उत्तर: (B) वियोग
5️⃣ विद्यापति के इन पदों में प्रधान रस कौन-सा है?
(A) वीर रस (B) हास्य रस (C) शृंगार-वियोग रस (D) अद्भुत रस
✅ उत्तर: (C) शृंगार-वियोग रस
🌟 II. लघु उत्तरीय प्रश्न
1️⃣ पदावली में “मोर मन हरि हरि लए गेल” पंक्ति का भावार्थ लिखिए।
💠 उत्तर: यह पंक्ति राधा की व्यथा प्रकट करती है कि कृष्ण ने उसका हृदय (मन) भी अपने साथ ले लिया, जिससे वह अपनी ही देह में अनाथ-सी महसूस करती है।
2️⃣ “नयन न तिरपित भेल” पंक्ति में ‘तिरपित’ शब्द का क्या अर्थ हुआ?
💠 उत्तर: ‘तिरपित’ का तात्पर्य ‘तृप्त’ से है, यानि नेत्र दर्शन से अभिभूत नहीं हो पाए, प्रेम के दर्शन से भी संतोष नहीं हुआ।
3️⃣ पद-2 में ‘अनुभव काहु न पेख’ कहकर कवि क्या कहना चाहता है?
💠 उत्तर: प्रेम के अनुभव की गहराई एवं सूक्ष्मता को कोई पूर्णतः न समझ सकता, यह अनुभव अत्यंत दुर्लभ व अनमोल है।
4️⃣ “कातर दिठि करि” भाव से नायिका की मनोदशा कैसी दर्शाई गई है?
💠 उत्तर: यह भाव व्याकुल, बेचैन और प्रतीक्षालु दृष्टि को दिखाता है, जहाँ नायिका अपने प्रियतम को चारों ओर व्याकुलता से खोज रही है।
5️⃣ चौदिस चाँद-समान रूपक से किस वस्तु की तुलना की गई है?
💠 उत्तर: चतुर्दिक भ्रमण-काल में प्रिय आकार की चतुर्दिशा दृश्य-शक्ति का क्षीण होना, यथा ‘चौदिस चाँद’ के समान क्षीणता दिखाने हेतु।
🌟 III. मध्यवर्ती उत्तरीय प्रश्न
1️⃣ राधा के मन में सावन ऋतु को लेकर उत्पन्न द्वंद्व की विशेषता स्पष्ट कीजिए।
💠 उत्तर: सावन ऋतु सामान्यतः मिलन-काल मानी जाती है, परन्तु राधा के लिए यह विरह-काल है। यही विरोधाभास राधा को और शोकाकुल कर देता है। हर वर्ष सावन में इंद्रधनुषी बूँदें बरसती हैं, लेकिन बूँदों की ताजगी उसकी पीड़ा को बढ़ाती हैं। मानसून के हर घट-बूँद उसे कृष्ण का स्मरण करा देती हैं। इस द्वंद्व के कारण वह प्रकृति के स्पर्श और ध्वनि दोनों से कातर हो उठती है।
2️⃣ “सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति-पथ परस न गेल” पंक्ति में श्रवण-संदर्भ की व्याख्या कीजिए।
💠 उत्तर: पंक्ति बताती है कि मधुर वचन सुनने के बावजूद वे शब्द उसके हृदय तक नहीं पहुँचते। ‘स्रवनहि सूनल’ से तात्पर्य है उसने बार-बार सुना, परन्तु ‘स्रुति-पथ परस न गेल’ यानी श्रवण की माधुर्य उसकी अंतरात्मा को स्पर्श नहीं कर पाई। यह प्रेम के प्रतिक्षण नवीन स्वरूप और अनुभूति की अनुपम गहराई को दर्शाता है।
3️⃣ प्रकृति-काव्य के अंतर्गत कोकिल एवं मधुकर की ध्वनि का उपयोग कैसे प्रभाव करता है?
💠 उत्तर: कोकिल-कलरव एवं मधुकर-धुनि का सामान्यतः मधुर आनंद देना उद्देश्य होता है, परंतु राधा के विरह में ये ध्वनियाँ पीड़ा का कारण बन जाती हैं। इन ध्वनियों से कृष्ण स्मृति जाग्रत होती है। परिणामी रूप से नायिका कान बंद कर उन ध्वनियों से बचने का प्रयास करती है। प्रकृति के संगीत से विपरीत प्रभाव दिखाकर कवि वियोग की तीव्रता रेखांकित करते हैं।
4️⃣ चौदिस चाँद-समान और वनराग-वर्णन से पद-3 में कौन-सा दार्शनिक तत्त्व जुड़ता है?
💠 उत्तर: ‘चौदिस चाँद-समान’ रूपक में मृत्युजन्य क्षीणता का संकेत है—चतुर्दिशा में भ्रमण करते-करते प्रिय शक्तियाँ ही क्षीण हो जाती हैं। वनराग—फूल, कोयल, हरा-भरा वासंतिक सौंदर्य—उत्साह का प्रतीक होते हुए भी वियोग-पीड़ा को और उभार देता है। इस द्वंद्व में जीवन-मरण का दर्शन छिपा है—प्रकृति एवं मन का अंतर्संघर्ष, जिसमें मानवीय पीड़ा शाश्वत चिंतन बन जाती है।
🌟 IV. विस्तार उत्तरीय प्रश्न
1️⃣ इन पदों में प्रयुक्त अलंकारों की भूमिका पर विवेचन कीजिए।
💠 उत्तर: विद्यापति के पदों में अलंकार भाषा को सजाकर भाव की गहराई तक पहुँचाते हैं। ‘अनुप्रास’ अलंकार से ध्वनि-लय गेय बन जाती है, जैसे ‘पतिआ—पतिआए’, ‘हरि—हरि’। यह वियोग की ध्वनि को सौम्य बनाकर स्मरणीय कर देता है। ‘यमक’ अलंकार शब्द-पुनरुक्ति द्वारा अर्थ का द्विगुणीकरण करता है; ‘हरि हरि’ में कृष्ण-हरण दोनों भाव एक साथ व्यक्त होते हैं। ‘उपमा’ अलंकार चतुर्दिशा फैलाता है—‘चौदिस चाँद समान’ रूपक से दृश्य-क्षय की मार्मिक कल्पना मिलती है। ‘रूपक’ अलंकार कोयल को मानव-पीड़ा का प्रतीक बनाकर पाठक को चौंका देता है। ये अलंकार भाव को मात्रात्मक नहीं, संवेदनात्मक आयाम देते हैं। काव्य में अलंकार इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि वे भाव के दृश्य रूप का निर्माण करते हुए रचना की सौंदर्यात्मकता बढ़ाते हैं।
2️⃣ प्रेम-वियोग को अनुभव कर पाना कितना दुर्लभ है, इस संदर्भ में पद-2 का विश्लेषण कीजिए।
💠 उत्तर: पद-2 में कवि प्रेम की अतृप्त प्रकृति पर बल देते हैं। ‘तिल-तिल नूतन’ कहकर प्रेम की प्रतिकल्पना प्रतिपल नवीन करने की बात कहते हैं। जन्म-काल से नव-जन्म तक दृश्य-श्रवण के बावजूद निपुण तृप्ति न हो पाना दर्शाता है कि यह अनुभव तारुण्य की तरह क्षणभंगुर नहीं, स्थायी अग्नि है। ‘अनुभव काहु न पेख’ कहकर इसकी अनहदता रेखांकित होती है—कोई भी विपुल रसिक इसकी अनुभूत्यात्रा के केन्द्र तक नहीं पहुँच सकता। यहां प्रेम न तो दिखता है, न ही सुनाई देता है; इसे केवल आत्मा जान सकती है। रूपी, रसिक, स्मृति सभी माध्यम असफल हो जाते हैं। जो व्यक्ति इस अनुभूति का स्वामी होता है, वह नैसर्गिक आवेगों से ऊपर उठकर दिव्य अनुभूति में लीन हो जाता है। इसलिए कवि कहता है कि लाख-लाख युग रख लेने से भी ‘हिअ जरनि न गेल’—हृदय की अग्नि न बुझी। इस प्रकार प्रेम-वियोग का गहन अनुभव अत्यंत दुर्लभ एवं अलौकिक माना गया है।
🌟 V. अति-विस्तृत प्रश्न
1️⃣ विद्यापति के इन पदों में प्रकृति और मनोदशा के अंतर्सम्बन्ध का विवेचन कीजिए।
💠 उत्तर: विद्यापति के पदों में प्रकृति और मानवीय मन का संवाद एक गहन भौतिक एवं आध्यात्मिक द्वंद्व रचता है। श्रद्धासंपन्न कवि मानते हैं कि प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं, किंतु मनोदशा की प्रतिध्वनि भी है। पहले पद में सावन की घटाएँ और बूँदें विरहिणी के अश्रु समान हैं—वृष्टि से एक ओर जीवन-उत्साह का प्रतीक उजागर होता है, लेकिन एकाकी नायिका पर यह घनत्व दर्दनाक बनकर टूटता है। दूसरे पद में मधुर वचन एवं प्रेम-भाव प्राकृतिक माधुर्य के समकक्ष हों, फिर भी वे उसकी आत्मा तक नहीं पहुँचते—यह प्रकृति-मन के मधुर मिलन की विफलता दिखाता है। तीसरे पद में कोकिल-कलरव और मधुकर-धुनि, जो आमतौर पर आनंददायी होते हैं, राधा के लिए त्रासद ध्वनि बन जाते हैं; फूलों का सौन्दर्य मनोमंथन से ‘कमलमुखि’ तक पहुँच जाता है, पर उसी सौन्दर्य का दुरुपयोग कर उसकी वेदना और तीव्र कर देता है। इस द्वंद्व के माध्यम से कवि दिखाते हैं कि मनुष्य की अंतरात्मा एवं बाह्य जगत् क्या-कैसे अंतर्संवेदित हैं: बाह्य रोशनी भी विरह की आंधी में मंद पड़ जाती है। इसी द्वंद्व में जीवन-मरण का चक्र और प्रेम-वियोग का अद्भुत मिश्रण दृष्टिगोचर होता है। अंततः पद-समूह यह संदेश देते हैं कि भौतिक जगत् की सुख-माधुर्य और व्यक्तिगत मन की पीड़ा के बीच संबंध केवल प्रतिरोधी नहीं, परस्पर अवलम्बी भी है। यह अंतर्सम्बन्ध भारतीय काव्य में प्रकृति-मानव-विषयक समग्र दृष्टि का उत्तम उदाहरण है।
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