Class 12 : हिंदी अनिवार्य – अध्याय 22. काव्य शास्त्र
काव्यशास्त्र
काव्यशास्त्र की परिभाषा और परिचय
काव्यशास्त्र वह शास्त्र है जो काव्य की रचना, उसके सौंदर्य, लय, छंद, अलंकार, रस, गुण और दोष के नियमों का व्यवस्थित अध्ययन करता है। यह कवि को उत्कृष्ट, प्रभावशाली और कलात्मक रचना करने की दिशा देता है और पाठक को काव्य का सही रसास्वादन करने की दृष्टि प्रदान करता है।
भारतीय काव्यशास्त्र का आधार वेद, उपनिषद, महाकाव्य, नाट्यशास्त्र और आचार्यों की अलंकारशास्त्र संबंधी रचनाओं में निहित है। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में रस और अभिनय के सिद्धांत दिए, आचार्य भामह और दंडी ने अलंकारशास्त्र को रूप दिया, मम्मट और विश्वनाथ ने काव्य के स्वरूप, रस और गुण-दोष को विस्तार से समझाया।
काव्यशास्त्र केवल नियमों का संग्रह नहीं, बल्कि यह साहित्य की आत्मा है, जिसमें भाषा की शुद्धता, भाव की गहनता, कल्पना की ऊँचाई और लय की मधुरता का सम्मिलन होता है।
परिभाषा:
“काव्य के निर्माण और उसके सौंदर्य के सिद्धांतों का विवेचन करने वाला शास्त्र काव्यशास्त्र कहलाता है।”
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छंद की परिभाषा और विस्तृत व्याख्या
छंद की परिभाषा:
काव्य में मात्रा, लय और गति के निश्चित नियमों के अनुसार पंक्तियों की रचना को छंद कहते हैं। यह कविता का संगीतात्मक ढाँचा है, जो उसे गेय और प्रभावशाली बनाता है।
छंद के अंग:
गति: कविता में लय की चाल को गति कहते हैं। गति के तीन प्रकार होते हैं — मंद (धीमी), मध्यम (सामान्य) और द्रुत (तेज़)।
यति: छंद में निश्चित स्थान पर ठहराव को यति कहते हैं। यह पाठ में मधुरता और लय बनाए रखता है।
लय: ध्वनियों का नियमित और सामंजस्यपूर्ण प्रवाह लय कहलाता है।
मात्रा: कविता में वर्णों की समय-मानक गणना।
गुरु वर्ण – 2 मात्राएँ
लघु वर्ण – 1 मात्रा
छंद कविता में अनुशासन और सौंदर्य बनाए रखते हैं। छंद के पालन से कविता में मधुरता, गेयता और आकर्षण बढ़ता है, जबकि छंद भंग होने पर काव्य का प्रभाव कम हो जाता है।
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दोहा
परिभाषा:
दोहा मात्रिक छंद है जिसमें प्रत्येक पंक्ति में दो चरण होते हैं—पहले चरण में 13 मात्राएँ और दूसरे चरण में 11 मात्राएँ। कुल चार चरण होते हैं (दो पंक्तियाँ)। तुकांत सामान्यतः दूसरे और चौथे चरण पर होती है, तथा यति का स्थान 13 मात्राओं के बाद आता है।
उदाहरण:
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय॥ — कबीर
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥ — कबीर
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती, मानस, चून॥ — रहीम
तुलसी मीठे बचन से, सुख उपजत चहुँ ओर।
बसु करे घर आन का, हियँ हरषे चहुँ ओर॥ — तुलसीदास
जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रह्यो बड़पान।
तुलसी तहाँ न जाइए, छाँह छाँह को आन॥ — तुलसीदास
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चौपाई
परिभाषा:
चौपाई एक वर्णिक छंद है। प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती हैं। कुल चार चरण होते हैं, जिन्हें दो-दो पंक्तियों में लिखा जाता है। चौपाई का प्रयोग विशेष रूप से कथा-काव्य और रामचरितमानस में अधिक है।
उदाहरण:
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥ — तुलसीदास
मंगल भवन अमंगल हारी।
द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥ — तुलसीदास
बड़ भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हँ गावा॥ — तुलसीदास
निज मतु अनुचरि चलउँ सिराना।
राम करहु सप्रेमु हिय दीना॥ — तुलसीदास
सुनहु सखा मैं कहउँ तुम्हाहीं।
सत्यमोह बस करि बिनु पाहीं॥ — तुलसीदास
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सोरठा
परिभाषा:
सोरठा में मात्राओं का क्रम दोहा के विपरीत होता है—पहले चरण में 11 मात्राएँ और दूसरे में 13 मात्राएँ। कुल चार चरण (दो पंक्तियाँ) होते हैं, तुकांत दूसरे और चौथे चरण पर होती है।
उदाहरण:
बिप्र धेनु सुर संत हित, लीन्हि मनुज अवतार।
निज अंस प्रकट भये, करि त्रैलोक्य उजियार॥ — तुलसीदास
राम सुमिरत सुख होइ, मिटहिं सकल दुख दारुन।
भवसागर तरि जाइ, पावहिं परम गुन सारुन॥ — तुलसीदास
राम नाम रटि लेहु, मिटहिं सकल अपसार।
तुलसी तुल्य न कोइ, भवसागर करत पार॥ — तुलसीदास
प्रभु चरनन सरन जनि, करुना सिंधु रघुनाथ।
मोद मंगल बरषहु, हरि सेवक के साथ॥ — तुलसीदास
हरि नाम जपो मन प्रबल, सकल सिंधु सुख पाय।
दारुण दुःख सब कटे, भवसागर तरि जाय॥ — तुलसीदास
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रोला
परिभाषा:
रोला मात्रिक छंद है, प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। यति सामान्यतः 11वीं मात्रा के बाद दी जाती है। कुल चार चरण (दो पंक्तियाँ) होते हैं और तुकांत दूसरे व चौथे चरण पर रहती है। इसका प्रयोग वीर रस और भक्ति रस की कविताओं में अधिक होता है।
उदाहरण:
रामहि केवल प्रेम पियारा, जानि लेहु जो जाननहारा।
तजि सकल आशा बसि हरि रंगा, तुलसी तजि जग जाल भुला॥ — तुलसीदास
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हरिगीतिका
परिभाषा:
हरिगीतिका छंद में प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं, यति 16वीं मात्रा के बाद आती है। अंत में लघु गुरु होते है.यह छंद माधुर्य और विस्तार के लिए उपयुक्त है और विशेष रूप से भक्ति, श्रृंगार तथा वर्णनात्मक काव्य में प्रयुक्त होता है।
उदाहरण:
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो॥ — मीरा बाई
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गीतिका
परिभाषा:
गीतिका लघु मात्रिक छंद है, जिसमें प्रत्येक चरण में 12 मात्राएँ होती हैं।कुल26 मात्राएं l अंत में लघु गुरु होते है.यह सरल, गेय और लघु वर्णन के लिए उपयुक्त होता है, विशेषकर भक्ति और श्रृंगार रस में।
उदाहरण:
मोरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोय।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोय॥ — मीरा बाई
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छप्पय
परिभाषा:
छप्पय छंद में प्रति पद छह पंक्तियाँ होती हैं। यह वीर, ऐतिहासिक और वर्णनात्मक काव्य के लिए उपयुक्त है। रोला के साथ उल्लाल छंद मिल के ये छंद बन जाता है.इसकी लय उत्साहवर्धक होती है।
वीर रस के लिए उपयुक्त.
उदाहरण:
जाके बल से गिरि गज गिरैं, सिंधु तरैं तरवार।
जाके बल से जीतत जगत, सूरा करहु पुकार॥
जाके बल से सिंह सरीर, मृगहि न करै सताय।
जाके बल से जीतत जगत, तासु नाम धरि गाय॥
जाके बल से रणभूमि में, वीर धरे सब धीर।
जाके बल से होइ विजय, तासु गाइ गुन नीर॥ — आल्हा-ऊदल काव्य
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कुंडलियां
परिभाषा:
कुंडलियां छंद में पहले दोहा, फिर रोला आता हैं,कुल 6 पंक्ति होती हैं, यह भक्ति, नीति और उपदेशात्मक काव्य में प्रचलित है।
उदाहरण:
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िये, जब तक घट में प्रान॥
दया धर्म का मूल है, यह उपजावै ज्ञान।
इससे होता पुण्य है, मिटता सकल अपान॥
तुलसी दया न छोड़िये, जब तक घट में प्रान॥ — तुलसीदास
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कवित्त
परिभाषा (सही)
कवित्त वर्णिक समवृत्त छंद है। इसमें चार चरण होते हैं; प्रति चरण 31 वर्ण होते हैं और यतियाँ 8–8–8–7 के क्रम पर मानी जाती हैं (अर्थात 8, 8, 8 और 7 वर्ण के ठहराव)। चरणांत गुरु अनिवार्य माना गया है। कवित्त को ब्रज परंपरा में ‘मनहरन/घनाक्षरी’ भी कहा गया है।
पूरा उदाहरण (भूषण)
आपस की फूट ही तें सारे हिंदुवान टूटे टूट्यो कुल रावन अनीति अति करतें।
पैठ्यो पाताल बलि बज्रधर ईरषा तें टूट्यो हिरनाच्छ अभिमान चित धरतें।
टूट्यो सिसुपाल बासुदेव जू सौं बैर करि टूट्यो है महिष दैत्य अध्रम बिचरतें।
राम-कर छूवन तें टूट्यो ज्यौं महेस-चाप—टूटी पातसाही सिवराज-संग लरतें॥
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सवैया
परिभाषा (सही)
सवैया वर्णिक छंद है—चार चरण, और सामान्यतः हर चरण में 22–26 वर्ण। इसकी रचना किसी एक गण की 7 या 8 आवृत्तियों पर टिकी रहती है; प्रचलन में भगण (211)-आश्रित सवैये (क्षिप्र गति) और तगण (221)-आश्रित सवैये (मंद गति) विशेष हैं। आरंभ/अंत में 1–2 वर्ण जोड़कर अनेक भेद बनते हैं; चारों चरण समतुकांत रखे जाते हैं।
पूरा उदाहरण (रसखान)
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पशु हौं तौ कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तौ वही गिरि को जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन॥
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द्रुतविलंबित
छंद-सूत्र
प्रति चरण 12 वर्ण; गण-क्रम: नगण, भगण, भगण, रगण — स्मरणार्थ सूत्र/मोनिक: “न-भ-भ-र (नभभरा)”। (लघु-गुरु क्रम रूप में: . प्रायः दो-दो चरण समतुकांत लिए जाते हैं।
उदाहरण:
“दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला।”
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वंशस्थ
छंद-सूत्र
प्रति चरण 12 वर्ण; गण-क्रम: जगण, तगण, जगण, रगण। परंपरा में 5वें और 12वें वर्ण के बाद यति का निर्देश मिलता है।
उदाहरण :
कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्
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अलंकार की परिभाषा और व्याख्या
परिभाषा:
काव्य में शब्दों और अर्थों के सौंदर्य को बढ़ाने वाले विशेष गुण को अलंकार कहते हैं।
व्याख्या:
‘अलंकार’ शब्द का अर्थ है ‘आभूषण’। जैसे आभूषण शरीर को और आकर्षक बना देते हैं, वैसे ही अलंकार काव्य को और अधिक मनोहारी, प्रभावशाली तथा मधुर बनाते हैं। अलंकार न केवल भाषा की शोभा बढ़ाते हैं बल्कि भावों को स्पष्ट, सजीव और हृदयग्राही बना देते हैं।
भारतीय काव्यशास्त्र में अलंकारों को दो मुख्य वर्गों में बाँटा गया है —
शब्दालंकार – जिनमें सौंदर्य का आधार शब्दों की योजना, ध्वनि और लय होती है।
अर्थालंकार – जिनमें सौंदर्य का आधार भाव, कल्पना और अर्थ की विशेषता होती है।
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शब्दालंकार
अनुप्रास अलंकार
परिभाषा:
जब एक ही वर्ण (अक्षर) का बार-बार प्रयोग हो और उससे काव्य में मधुरता, लय और संगीतात्मकता उत्पन्न हो, तो उसे अनुप्रास अलंकार कहते हैं।
विशेष बातें:
एक ही वर्ण की पुनरावृत्ति अर्थ की दृष्टि से अनिवार्य नहीं होती, केवल ध्वनि-सौंदर्य हेतु होती है।
यह केवल ध्वनि-आधारित सौंदर्य है।
प्रामाणिक उदाहरण:
“बज्र ब्याल बरसत बरषा, बरनि सकल सुख सार।” — तुलसीदास
“चंदन चाचा चारु चकाचक चंद उजागर की।” — पद्माकर
“बगुला बसे बगुलों के बीच।” — लोककाव्य
यमक अलंकार
परिभाषा:
जब एक ही शब्द का एक ही पंक्ति या समीपवर्ती पंक्तियों में बार-बार प्रयोग हो और प्रत्येक प्रयोग में भिन्न-भिन्न अर्थ हों, तब उसे यमक अलंकार कहते हैं।
विशेष बातें:
एक ही शब्द का पुनरावृत्ति होना आवश्यक है।
अर्थ भिन्न होने चाहिए, ध्वनि एक जैसी होनी चाहिए।
प्रामाणिक उदाहरण:
“राम राम सब जगत बखाने, राम बिना सुख नाहीं।” — भक्ति पद
“राजा रामचंद्र राम के राम हैं।” — भक्तिकाव्य
“दाम दाम सब को दाम, दाम बिना न काम।” — नीति पद
श्लेष अलंकार
परिभाषा:
जब एक ही शब्द से एक साथ दो या दो से अधिक अर्थों का बोध हो, तो वह श्लेष अलंकार कहलाता है।
विशेष बातें:
ध्वनि और शब्द समान, पर अर्थ एक से अधिक।
यह अर्थ-आधारित और ध्वनि-सौंदर्य दोनों को मिलाकर बनता है।
प्रामाणिक उदाहरण:
“राम सिया राम राम सिया राम।” — भक्ति गीत (यहाँ ‘राम’ भगवान का नाम और ‘राम’ हर्ष का भाव दोनों है)।
“बरन बरन के बरन बरन बरनी बरन बनावैं।” — पद्माकर (यहाँ ‘बरन’ के अलग-अलग अर्थ: वर्ण, रंग, आदि)।
“मुरली मनोहर मनोहर मुरली बजावैं।” — ब्रजभाषा पद (मुरली = बांसुरी, मुरली = नाम, मनोहर = विशेषण और नाम)।
अध्ययन टिप्पणी:
अनुप्रास में केवल ध्वनि की पुनरावृत्ति है, अर्थ पर जोर नहीं।
यमक में ध्वनि समान है, पर अर्थ अलग-अलग हैं और एक ही पंक्ति में आते हैं।
श्लेष में एक ही शब्द से एक साथ एक से अधिक अर्थ निकलते हैं, जो प्रसंग के अनुसार स्पष्ट होते हैं।
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अर्थालंकार
रूपक अलंकार
परिभाषा:
जब उपमेय और उपमान में अंतर मिटाकर, उपमेय को उपमान ही मान लिया जाए, तो वह रूपक अलंकार कहलाता है।
विशेषताएँ:
उपमेय और उपमान का अभेद।
सीधा कथन कि उपमेय वही है जो उपमान है।
उदाहरण:
“श्याम तुहिं मधुकर, गोपी तुहिं मालिन।” — सूरदास
मुख- कमल
कंज- मुख
पद -पंकज
उपमा अलंकार
परिभाषा:
जब उपमेय और उपमान की तुलना किसी साधारण गुण के आधार पर ‘जैसे, समान, तुल्य’ आदि शब्दों द्वारा हो, तो वह उपमा अलंकार है।
विशेषताएँ:
चार अंग — उपमेय, उपमान, साधारण धर्म, उपमार्थ वाचक शब्द।
उपमान स्पष्ट रूप से कहा जाता है।
उदाहरण:
“मुख चंद्रमा समान।” — लोककाव्य
“तन सीता-सा कोमल, मन राम-सा दृढ़।” — भक्ति पद
उत्प्रेक्षा अलंकार
परिभाषा:
जब किसी वस्तु के साथ दूसरी वस्तु की ऐसी संभावना बताई जाए कि वह हो भी सकती है और न भी हो सकती, तब उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
विशेषताएँ:
संभावना का भाव।
‘मानो’, ‘जैसे हो’ मनहु,जनहु , जानो आदि शब्दों का प्रयोग।
उदाहरण:
“बरसत राम बिराजत सीता, मानो बरसै अमृत की धार।” — लोकपद
“कली मानो मुसकाई हो।” — कवि प्रसाद
मानवीकरण अलंकार
परिभाषा:
जब निर्जीव वस्तुओं में मानव के गुण, क्रियाएँ या भाव कल्पित किए जाएँ, तब मानवीकरण अलंकार होता है।
उदाहरण:
“नदी गा रही है।” — काव्य प्रयोग
“चाँद मुस्कुरा रहा है।” — लोककाव्य
अतिशयोक्ति अलंकार
परिभाषा:
जब किसी वस्तु, गुण, कार्य आदि का वर्णन वास्तविकता से अधिक या कम कर के किया जाए, तब अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण:
“बाढ़ आई ऐसी कि गगन को छू गई।” — लोकवाणी
“तेरे नैन लाखों तारे निगल गए।” — प्रेमकाव्य
वक्रोक्ति अलंकार
परिभाषा:
जब किसी भाव को सीधा न कहकर टेढ़े या व्यंग्यपूर्ण ढंग से कहा जाए, तब वक्रोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण:
“वाह! बड़े ईमानदार निकले आप!” — व्यंग्य
“सच कहूँ, तुम्हारा साहस अद्भुत है जो भूल बार-बार करते हो।” — व्यंग्य शैली
विरोधाभास अलंकार
परिभाषा:
जब प्रतीत होने में अर्थ विरोधी लगे, पर वास्तविकता में वे संभव और संगत हों, तब विरोधाभास अलंकार होता है।
उदाहरण:
“जीवन-मरण का संगम।” — काव्य प्रयोग
“अंधेरे में उजाला।” — प्रतीकात्मक काव्य
विभावना अलंकार
परिभाषा:
जब असंभव कार्य को संभव मानकर कहा जाए, या कारण ना होने पर भी कार्य हो जाए ,तो वह विभावना अलंकार होता है।
उदाहरण:
“मैंने चाँद को अपनी झोली में भर लिया।” — कल्पना
2.बादल ना आए फिर भी हो गई बरसात
संदेह अलंकार
परिभाषा:
जब कथन में किसी एक के स्थान पर दूसरी वस्तु भी होने का संशय प्रकट हो, तो संदेह अलंकार होता है।
उदाहरण:
“यह बिजली है या चाँदनी?” — काव्य
“यह मोती है या ओस की बूँद?” — काव्य
भ्रांतिमान अलंकार
परिभाषा:
जब किसी वस्तु को भूलवश दूसरी वस्तु समझ लिया जाए, तब भ्रांतिमान अलंकार होता है।
उदाहरण:
“दूर चमकता दीपक तारा लगा।”
“साँप समझकर रस्सी छोड़ दी।”
अन्योक्ति अलंकार
परिभाषा:
जब एक वस्तु के माध्यम से दूसरी वस्तु का वर्णन किया जाए, तब अन्योक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण:
“मछली कहे पानी से—तू मेरा जीवन है।” — लोककथा
“पलाश की आग कह रही है—बसंत आ गया।”
समासोक्ति अलंकार
परिभाषा:
जब बिना स्पष्ट उल्लेख के किसी वस्तु का वर्णन किया जाए और अर्थ पूरा हो, तो समासोक्ति अलंकार कहलाता है।
उदाहरण:
“शीतल पवन बह रहा था, मोर नाच रहे थे।” — काव्य
“कुंजों में कोकिल बोल रही थी।”
विशेषोक्ति अलंकार
परिभाषा:
जब किसी वस्तु के एक गुण को विशेष रूप से बताते हुए अन्य गुणों को गौण कर दिया जाए, तब विशेषोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण:
“राम केवल करुणानिधान हैं।” — तुलसीदास
“सूरज केवल प्रकाश देता है।”
दृष्टांत अलंकार
परिभाषा:
जब किसी भाव को स्पष्ट करने के लिए सामान्य जीवन से उदाहरण दिया जाए, तब दृष्टांत अलंकार होता है।
उदाहरण:
“जैसे बिना पानी के मछली तड़पती है, वैसे ही प्रेम बिना जीव।” — तुलसीदास
“जैसे दीपक बिना तेल के बुझ जाता है, वैसे ही ज्ञान बिना भक्ति के।”
प्रतीप अलंकार
परिभाषा:
जब किसी उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ बताया जाए तो प्रतीप अलंकार होता है।
उदाहरण:
“बरखा में धूप निकली।” — प्रतीकात्मक
“ठंड में पसीना बहना।”
व्यतिरेक अलंकार
परिभाषा:
जब उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ बताया जाए,और कारण भी दिया जाए तब व्यतिरेक अलंकार होता है।
उदाहरण:
सखि तव मुख चन्द्र सम सुन्दर, मधुर वचन सविशेष
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रस की परिभाषा
जब किसी काव्य में व्यक्त भाव, आलंबन (विषय), उद्दीपन (सहायक दृश्य), अनुभाव (भाव प्रकट करने वाली क्रियाएँ) और संचारी भाव (सहायक भाव) के संयोग से रसिक पाठक या श्रोता के हृदय में स्थायी भाव का आस्वाद उत्पन्न होता है, तो उसे रस कहते हैं।
रस निष्पत्ति सूत्र
विभाव + अनुभाव + संचारी भाव = स्थायी भाव → रस
विभाव – स्थायी भाव को उद्दीप्त करने वाला कारण
आलंबन विभाव – व्यक्ति या वस्तु जो भाव का केंद्र है
उद्दीपन विभाव – दृश्य, वातावरण या वस्तुएँ जो भाव को बढ़ाते हैं
अनुभाव – भाव के बाहरी संकेत (हाव-भाव, क्रिया, वाणी)
संचारी भाव – सहायक और परिवर्तनीय भाव जो स्थायी भाव को सहयोग देते हैं
स्थायी भाव – मन में स्थायी रूप से रहने वाला मूल भाव, जो रस का मूल आधार है
नवरस
शृंगार रस (स्थायी भाव – रति)
परिभाषा:
प्रेम और सौंदर्य की अनुभूति कराने वाला रस शृंगार रस कहलाता है। इसके दो भेद हैं — संयोग शृंगार और वियोग शृंगार।
उदाहरण:
“बरसत ऋतु फूली अमराई। कोकिल बोलि रही बनराई॥” — सूरदास
“मोरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोय।” — मीरा
“नख-सिख गौर सुभग तनु, कीरति कीन्हि दिगंत।” — भक्ति काव्य
“सैंया मिलन को आए, सजनी हरषानी।” — लोकगीत
“प्रिय मिलन बिनु प्राण ज्यों बिनु जल मीन।” — लोककाव्य
वीर रस (स्थायी भाव – उत्साह)
परिभाषा:
वीरता, साहस और आत्मबल को जागृत करने वाला रस वीर रस कहलाता है। इसके चार भेद हैं – दानवीर, दयावीर, धर्मवीर, युध्दवीर।
उदाहरण:
“ढोल गढ़े, नगाड़े बजे, रणभेरी बजी चौंदसि।” — आल्हा
“चलत चलत रघुबीर, चले सँग वीर दल।” — तुलसीदास
“सीस कटा पर सिर न झुके।” — सिख वीरगाथा
“सूरा सो पहिचानिए, जो लड़े दीन के हेत।” — कबीर
“भूषण कहत सुजान, धरे सिवराज सिपाही।” — भूषण
करुण रस (स्थायी भाव – शोक)
परिभाषा:
दुःख, विषाद और करुणा की अनुभूति कराने वाला रस करुण रस कहलाता है।
उदाहरण:
“होइहि सोई जो राम रचि राखा।” — रामचरितमानस (वियोग प्रसंग)
“प्रिय प्रान बिना जीवन दुखमय।” — लोकगीत
“बरसत नैनन मोर, सखि बिरहा में।” — बिहारी
“पुत्र वियोग सह न सकी कैकेयी।” — रामकथा
“बिरह बिनु जीवत कैसे रहूँ?” — भक्ति पद
रौद्र रस (स्थायी भाव – क्रोध)
परिभाषा:
क्रोध और प्रतिशोध की भावना व्यक्त करने वाला रस रौद्र रस कहलाता है।
उदाहरण:
“लंकापुरी जलाऊँ, अहिरावण को मारूँ।” — रामकथा
“अर्जुन ने गाण्डीव उठाया।” — महाभारत
“कनक भवन सब जलि जाई।” — रामचरितमानस
“रण में सिंह गर्जना करि।” — वीरकाव्य
“क्रोध कराल बढ़्यो हनुमाना।” — तुलसीदास
हास्य रस (स्थायी भाव – हास)
परिभाषा:
हँसी और विनोद उत्पन्न करने वाला रस हास्य रस कहलाता है। इसके दो भेद हैं — आत्महास्य और परिहास।
उदाहरण:
“लखि सुमिरन करत नाथ, बंदर भए पंडित।” — लोकहास्य
“नख-सिख रंगीले, बैठे सजीले।” — हास्य पद
“बुद्धि कहे, बिनु धन के मित्र कहाँ टिकि।” — व्यंग्य
“रूपवती पर अक्ल कमी, सो नायिका अजीब।” — हास्य काव्य
“पंडित जी के घर में, रोटी कम, पोथी अधिक।” — लोकहास्य
अद्भुत रस (स्थायी भाव – विस्मय)
परिभाषा:
अचरज और आश्चर्य की अनुभूति कराने वाला रस अद्भुत रस कहलाता है।
उदाहरण:
“देखि लंकापुरी सोभा।” — रामचरितमानस
“अर्जुन का विराट रूप देखना।” — महाभारत
“बांसुरी सुनि थिर भये पशु-पक्षी।” — कृष्णकथा
“मोरनी नाच उठी।” — लोकगीत
“सिंह और गाय साथ चरें।” — नीति कथा
भयानक रस (स्थायी भाव – भय)
परिभाषा:
भय और आतंक की भावना उत्पन्न करने वाला रस भयानक रस कहलाता है।
उदाहरण:
“कालरात्रि का आगमन।” — लोककथा
“महासमुद्र की गर्जना।” — यात्रा वर्णन
“असुरों का नगर देख कर सिहर उठे।” — पुराण
“वन में बाघ की गर्जना।” — लोकगीत
“अँधेरी रात में सन्नाटा।” — काव्य
वीभत्स रस (स्थायी भाव – घृणा)
परिभाषा:
घृणा और वितृष्णा की अनुभूति कराने वाला रस वीभत्स रस कहलाता है।
उदाहरण:
“युद्धभूमि में बिखरे अंग-भंग।” — वीरकाव्य
“रक्त से भीगी धरती।” — महाकाव्य
“गली सड़ी लाश।” — युद्ध वर्णन
“अशुद्ध भोजन।” — लोककाव्य
“दुष्ट के कर्म देख घृणा।” — नीति पद
शांत रस (स्थायी भाव – शम)
परिभाषा:
मन की शांति, वैराग्य और संतोष की अनुभूति कराने वाला रस शांत रस कहलाता है।
उदाहरण:
“संतोष सम सुख नाहीं।” — कबीर
“तुलसी यह संसार सब, सपना होय।” — तुलसीदास
“राम नाम रटि लेहु, मिटे सकल अपसार।” — भक्ति पद
“त्यागी को परम शांति।” — नीति पद
“जहाँ लोभ न मोह, वहीँ सुख।” — नीति काव्य
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काव्य के गुण
परिभाषा:
काव्य में वे लक्षण या विशेषताएँ जो उसकी शोभा, प्रभाव और रस-परिणाम को बढ़ाएँ, काव्य के गुण कहलाते हैं।
व्याख्या:
गुण काव्य में स्थायी सौंदर्य का आधार होते हैं। जैसे शरीर में स्थायी सुंदरता आभूषण के बिना भी बनी रहती है, वैसे ही गुण काव्य में आंतरिक सौंदर्य और भाव-गंभीरता प्रदान करते हैं।
भारतीय काव्यशास्त्र में अनेक गुण बताए गए हैं, लेकिन यहाँ हम तीन प्रमुख शब्दगुण का अध्ययन करेंगे — माधुर्य, ओज और प्रसाद।
माधुर्य गुण
परिभाषा:
काव्य में शब्दों की कोमलता, मधुरता और लयात्मकता को माधुर्य गुण कहते हैं। इसमें शब्द और भाव दोनों कोमल, प्रिय और सुगम होते हैं।
विशेषताएँ:
कोमल वर्णों का प्रयोग
कोमल रस (विशेषकर शृंगार, करुण, शांत) में उपयुक्त
मधुर लय और सरलता
उदाहरण:
“मोरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोय।” — मीरा
“बरसत ऋतु फूली अमराई।” — सूरदास
“चंदन सा बपु, चंदन सा मन, चंदन सा भाव।” — लोकगीत
“सखी वे मुझसे कहकर जाते।” — सूरदास
“प्रेम बिना सब सूना।” — लोककाव्य
“श्याम रंग में रँगि गईं, सब गोपियाँ प्यारी।” — भक्ति पद
“फूलों की घाटी महकी।” — लोकगीत
“तन मन हरि रंग रँगिजै।” — भजन
“कोकिल बोले मधुर पिय प्यारे।” — लोकगीत
“राधा रानी बिरज में गावत।” — ब्रजगीत
ओज गुण
परिभाषा:
काव्य में वीरता, साहस, उत्साह और प्रभावोत्पादक शक्ति उत्पन्न करने वाले गुण को ओज गुण कहते हैं।
विशेषताएँ:
कठोर और प्रभावी वर्णों का प्रयोग
वीर रस, रौद्र रस और अद्भुत रस में उपयुक्त
तेजस्वी, ऊर्जावान और उत्तेजक लय
उदाहरण:
“ढोल गढ़े, नगाड़े बजे, रणभेरी बजी चौंदसि।” — आल्हा
“सो अरु वीर सो कहावत है, रण में जो लरि जाय।” — लोकवीरगाथा
“सूरा सो पहिचानिए, जो लड़े दीन के हेत।” — कबीर
“जाके बल से गिरि गज गिरैं, सिंधु तरैं तरवार।” — आल्हा-ऊदल
“रघुकुल रीति सदा चली आई।” — तुलसीदास
“कटे सिर, पर सिर न झुके।” — सिख वीरकाव्य
“भूषण कहत सुजान, धरे सिवराज सिपाही।” — भूषण
“अर्जुन ने गांडीव उठाया।” — महाभारत
“कनक भवन सब जलि जाई।” — तुलसीदास
“जयति जयति रघुनायक।” — भक्ति वीरगाथा
प्रसाद गुण
परिभाषा:
काव्य में सरल, स्पष्ट, सहज और सरस भाषा का गुण प्रसाद गुण कहलाता है। इससे सभी वर्गों के पाठक या श्रोता बिना कठिनाई के भाव ग्रहण कर लेते हैं।
विशेषताएँ:
स्पष्ट और सरल शब्दावली
सहज भावाभिव्यक्ति
सभी वर्गों के लिए ग्राह्य
उदाहरण:
“मनुस्य जन्म दुर्लभ है।” — तुलसीदास
“तुलसी इस संसार में, भांति-भांति के लोग।” — तुलसीदास
“सत्य बोलो।” — नीति वाक्य
“अच्छे काम में देर नहीं करनी चाहिए।” — नीति
“भलाई का फल भला।” — लोकोक्ति
“जो बोओगे, वही काटोगे।” — नीति पद
“दया धर्म का मूल है।” — तुलसीदास
“संगत से मन निर्मल होता है।” — नीति
“सत्य ही ईश्वर है।” — नीति वचन
“सत्संगति से सुधि बढ़े।” — लोककाव्य
काव्य दोष
परिभाषा:
काव्य में वे त्रुटियाँ जो उसके सौंदर्य, प्रभाव और रस को घटाती हैं, काव्य दोष कहलाती हैं। ये शब्दों के प्रयोग, अर्थ की स्पष्टता, संगति, या भाव की शुद्धता में कमी के कारण उत्पन्न होते हैं।
मुख्य प्रकार:
शब्ददोष – शब्दों के अनुचित, अशुद्ध या अप्रभावी प्रयोग से उत्पन्न दोष।
अर्थदोष – अर्थ की असंगति, असंभवता या अनुपयुक्तता से उत्पन्न दोष।
शब्ददोष
(क) ग्रामीणत्व दोष
परिभाषा: अशिष्ट, ग्राम्य या असभ्य शब्दों के प्रयोग से उत्पन्न दोष।
उदाहरण:
“तू काहे मुँह चिरौता करै?” — (यहाँ ‘मुँह चिरौता’ अशिष्ट है)
(ख) क्लिष्टत्व दोष
परिभाषा: अत्यधिक कठिन, जटिल और अप्रचलित शब्दों के प्रयोग से उत्पन्न दोष।
उदाहरण:
“कृतान्तवदनस्य” जैसे कठिन संस्कृत शब्द का साधारण कविता में प्रयोग।
(ग) अश्लीलता दोष
परिभाषा: अशोभनीय, अमर्यादित या असभ्य शब्दों से उत्पन्न दोष।
उदाहरण:
किसी नायिका-वर्णन में अशिष्ट अंग-उल्लेख।
(घ) अप्रचलित दोष
परिभाषा: ऐसे शब्दों का प्रयोग जो अब प्रचलन में नहीं हैं।
उदाहरण:
“करकटि” (कुम्हार) जैसे अप्रचलित शब्द का बिना आवश्यकता प्रयोग।
(ङ) श्रुतिकटु दोष
परिभाषा: ऐसे शब्द जिनका उच्चारण कानों को अप्रिय लगे।
उदाहरण:
“घर्ष्ट” (कठोर ध्वनि) का अनुचित प्रयोग।
(च) व्युत्संस्कृति दोष
परिभाषा: व्याकरण के नियमों के विरुद्ध शब्द-प्रयोग।
उदाहरण:
“मैं जाता है।” — (यहाँ क्रिया रूप गलत है)
(छ) अधिकपदत्व दोष
परिभाषा: अनावश्यक शब्दों का प्रयोग।
उदाहरण:
“मैं अपने हाथ से स्वयं खाना खाता हूँ।” — (‘स्वयं’ और ‘अपने’ दोनों साथ अनावश्यक)
(ज) र्यूनपदत्व दोष
परिभाषा: आवश्यक शब्द का अभाव।
उदाहरण:
“गुरु शिष्य को पढ़ा।” — (‘पढ़ाया’ शब्द का अभाव)
अर्थदोष
(क) पुनरुक्ति दोष
परिभाषा: एक ही बात को बार-बार कहना।
उदाहरण:
“मैं अपने मुँह से स्वयं बोला।” — (‘अपने’ और ‘स्वयं’ अनावश्यक पुनरुक्ति)
(ख) अस्पष्टार्थ दोष
परिभाषा: ऐसा कथन जिसका अर्थ स्पष्ट न हो।
उदाहरण:
“वह वहाँ गया जहाँ कोई नहीं गया।” — अस्पष्ट स्थान संदर्भ
(ग) असंगत दोष
परिभाषा: कथन में तर्क या प्रसंग का मेल न होना।
उदाहरण:
“राम ने धनुष खींचा और पानी पी लिया।” — असंबंधित क्रियाएँ साथ में
(घ) असंभव दोष
परिभाषा: ऐसी बात कहना जो वास्तविकता में संभव न हो।
उदाहरण:
“सूरज रात में निकला।”
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