Class 12 : हिंदी अनिवार्य – अध्याय 1 आत्म-परिचय, एक गीत
संक्षिप्त लेखक परिचय
हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवम्बर 1907 को प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में हुआ। उनका असली नाम हरिवंश राय श्रीवास्तव था, लेकिन ‘बच्चन’ नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने हिंदी कविता में मधुशाला जैसी रचना से अद्वितीय स्थान बनाया। उनकी कविताओं में जीवन की पीड़ा, संघर्ष, आशा और उत्साह का सुंदर चित्रण मिलता है। उन्होंने इंग्लैंड से अंग्रेजी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। वे अनुवादक, विचारक और शिक्षाविद् भी रहे।
प्रमुख रचनाएँ:
1️⃣ मधुशाला
2️⃣ नीड़ का निर्माण फिर
3️⃣ मधुबाला
4️⃣ मधुकलश
उनका निधन 18 जनवरी 2003 को हुआ। हिंदी साहित्य में उनका योगदान अमूल्य और प्रेरणादायी है।
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पाठ का विश्लेषण एवं विवेचन
हरिवंश राय बच्चन की कविता “आत्म परिचय”

पहला छंद
“मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;”
कवि कहते हैं कि वे संसार के जीवन का बोझ अपने कंधों पर लिए चलते हैं, फिर भी उनके भीतर प्रेम की ज्योति सदा प्रज्वलित रहती है।
“कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ!”
किसी प्रिय के स्पर्श ने उनके हृदय के तार झंकृत कर दिए हैं, और वे अपनी साँसों के दो तारों में जीवन का संगीत लिए चलते हैं।
दूसरा छंद
“मैं स्नेह-सूरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,”
कवि प्रेम की मदिरा का रसास्वादन करते हैं, और संसार की चिंता से मुक्त रहते हैं।
“जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!”
जब दुनिया बाहरी गीतों को महत्व देती है, कवि अपने अंतर्मन के गीत को ही गाते हैं।
तीसरा छंद
“मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;”
कवि अपने हृदय की भावनाओं और उपहारों को हमेशा साथ रखते हैं।
“है यह अपूर्ण संसार न मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!”
यह अधूरा संसार उन्हें नहीं भाता, वे अपने सपनों की दुनिया में जीते हैं।
चौथा छंद
“मैं जला ह्रदय में अग्नि दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;”
कवि के हृदय में अग्नि जलती रहती है, और वे सुख-दुख दोनों में लीन रहते हैं।
“जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!”
जहाँ लोग जीवन-सागर पार करने के लिए नाव बनाते हैं, कवि लहरों पर मस्त होकर बहना पसंद करते हैं।
पाँचवाँ छंद
“मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,”
कवि अपने यौवन के जोश और उसमें छिपे अवसाद को साथ लेकर चलते हैं।
“जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!”
जो चीज़ें बाहर से उन्हें हँसाती हैं, वे भीतर से रुलाती भी हैं; वे किसी की याद में डूबे रहते हैं।
छठा छंद
“कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!”
कवि कहते हैं कि सभी प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं, सत्य को कोई नहीं जान पाता; जहाँ बुद्धिमान है, वहीं नादान भी है।
“फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!”
दुनिया मूर्खता से नहीं सीखती; कवि स्वयं सीखे हुए ज्ञान को भूलने की कला सीख रहे हैं।
सातवाँ छंद
“मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;”
कवि स्वयं को और संसार को अलग मानते हैं; वे रोज़ नए संसार बनाते और मिटाते हैं।
“जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!”
जहाँ दुनिया पृथ्वी पर वैभव जोड़ती है, कवि हर कदम पर उसे ठुकराते हैं।
आठवाँ छंद
“मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,”
कवि अपने रोने में भी संगीत की लय लिए रहते हैं, और उनकी शीतल वाणी में भी अग्नि छुपी रहती है।
“हों जिस पर भूपो के प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।”
जहाँ लोग वैभव को पूजते हैं, कवि खंडहर के हिस्से को अपनाते हैं।
नवाँ छंद
“मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;”
कवि की पीड़ा को लोग गीत और छंद मानते हैं।
“क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!”
कवि पूछते हैं कि लोग उन्हें कवि क्यों मानते हैं, वे तो बस दुनिया के एक नए दीवाने हैं।
दसवाँ छंद
“मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;”
कवि दीवानों का रूप धारण किए रहते हैं, और उनके भीतर मादकता शेष नहीं रहती।
“जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!”
उनकी मस्ती का संदेश सुनकर दुनिया झूम उठती है।
निष्कर्ष:
हर छंद में कवि ने अपने आत्म-स्वरूप, भावनाओं, संघर्ष, प्रेम, विरक्ति और मस्ती का सुंदर चित्रण किया है। बच्चन जी की भाषा सरल, भावपूर्ण और अत्यंत प्रभावशाली है, जो आत्म-परिचय की गहराई तक पाठक को ले जाती है।दिन जल्दी-जल्दी ढलता है
हरिवंश राय बच्चन
संदर्भ:
यह गीत काव्य-पुस्तक ‘आरोह-भाग 2’ में रचित ‘निशा निमंत्रण’ संग्रह से उद्धृत है.
काव्यांश
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
हो जाए न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं—
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे—
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल?—
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
व्याख्या
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
यह उद्घोष रात के आगमन की त्वरितता पर आश्चर्य जताता है। दिन के क्षितिज से क्षणशः लुप्त होने का यह उद्घोष उत्साह और उत्तेजना दोनों जगाता है।
हो जाए न पथ में रात कहीं,
यह चिंता जीवन यात्रा में अचानक निराशा या मृत्यु न आ जाए, ऐसी मानवीय आशंका प्रकट करती है।
मंजिल भी तो है दूर नहीं—
यात्री का आत्मविश्वास प्रकट करता यह पंक्ति बताती है कि लक्ष्य निकट ही है; भय अनावश्यक है।
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
मानव-मन की तीव्र प्रेरणा को उकेरती यह पंक्ति दिखाती है कि आशा का संकल्प थके हुए यात्री को भी शीघ्र अग्रसर कर देता है।
(पुनरावृत्ति) दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
प्रत्यावर्तन से भाव की गेयता और कवि की उत्कट चिंता दोनों सुदृढ़ होती हैं।
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
यह कल्पना मातृत्व-हीनता में भी रक्त संबंधों की ममत्वपूर्ण चिन्ता को उद्घाटित करती है।
नीड़ों से झाँक रहे होंगे—
घोंसले में अपाराध्य चूजों की ओर कोमल दृष्टि का दृश्य बाँधती यह पंक्ति मातृभाव को प्रकट करती है।
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
प्रकृति के जीवनचक्र में व्याप्त अगाध जीवनशक्ति का प्रशंसात्मक वर्णन है—चिड़ियों का तेजी से लौटना, उस मातृतुल्य प्रेम की सजीव अभिव्यक्ति।
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
फिर से उस तात्पर्य पर लौटकर कवि समय की उत्कट गति को स्मरण कराता है।
मुझसे मिलने को कौन विकल?
स्वयं के एकाकीपन का मार्मिक प्रश्न—कवि यह पूछता है कि क्या कोई उसके मिलन की चिंता करता है?
मैं होऊँ किसके हित चंचल?—
यह प्रश्न उसकी आत्मीय असुरक्षा और अकेलेपन की उदासी अभिव्यक्त करता है।
यह प्रश्न शिथिल करता पद को,
विचार-पुंज ने कवि की गतिरोधी भाव-स्थिति निर्मित की है—चिंताएँ उसके कदम ठहरा देती हैं।
भरता उर में विह्वलता है!
अभाव की पीड़ा और हृदय की तड़पन कविता में व्यथित संवेदना को उद्घाटित करती है।
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
अंतिम उद्घोष कवि को पुनः समय की अनवरत धावकता से अवगत कराता है
संक्षेप:
कवि हरिवंश राय बच्चन जीवन-यात्रा को दिन-रात के प्राकृतिक चक्र द्वारा रूपकात्मक रूप में दर्शाते हुए बतलाते हैं कि लक्ष्य-साधना की तीव्र कामना मनुष्य को थकावट के बावजूद तेजी से आगे बढ़ने का संकल्प देती है, मातृ-आशा की उदात्तता प्रकृति के चिड़िया-राही चक्र में परिलक्षित होती है, और अंततः अकेलेपन की वेदना मानव हृदय को थामने का प्रयास करती है—परंतु समय अपनी अनवरत धारा में वशीभूत है, जो अवसाद-उत्साह सभी को तात्कालिकता की सीख देता है।
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पाठ्यपुस्तक के प्रश्न
प्रश्न 1: कविता एक ओर “जग-जीवन का भार लिए घूमने” की बात करती है और दूसरी ओर “मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ”– विपरीत से लगते इन कथनों का क्या आशय है?
उत्तर – पहले कथन में कवि संसार की जिम्मेदारियाँ और कष्ट उठाने की बात करता है, जो मनुष्य का सामाजिक दायित्व है; दूसरे कथन में वह दुनिया की तिरस्कारपूर्ण आलोचनाओं से उदासीन रहने का भाव व्यक्त करता है, यानी चाहे भार कितना ही हो, वह अपने प्रेम और कल्पना के मार्ग से विचलित नहीं होता।
प्रश्न 2: “जहाँ पर दाना रहते हैं, वहीं नादान भी होते हैं”– कवि ने ऐसा क्यों कहा होगा?
उत्तर – ‘दाना’ अर्थात् बुद्धिमान, ‘नादान’ अर्थात् मूर्ख। जहाँ विवेकशील और विद्वान लोग होते हैं, वहाँ वैभव और मोह-माया से अंधे मूर्ख भी रहने पर समाज के द्वैत और विरोधाभास को दर्शाने के लिए यह पंक्ति रची गई है।
प्रश्न 3: “मैं और, और जग और कहाँ का नाता”– पंक्ति में ‘और’ शब्द की विशेषता बताइए।
उत्तर – यहाँ ‘और’ शब्द का तीन बार दोहराया जाना यमक अलंकार का उदाहरण है। प्रथम ‘और’ से कवि और समाज के भयावरण का विभाजन, द्वितीय ‘और’ से संसार की उपस्थिति, तृतीय ‘और’ से इनके बीच के चिराग्रहणरहित संबंध का भेद दर्शाया गया है।
प्रश्न 4: “शीतल वाणी में आग” के होने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर – बाह्यतः कवि की भाषा को शीतल एवं प्रेममय दिखाया गया है, परन्तु अंतःकरण में वियोग की तीव्र वेदना ऐसी है कि उसका हृदय अग्नि की भाँति जलता रहता है। इस विरोधाभास से कवि की आत्मा का द्वंद्व प्रकट होता है।
प्रश्न 5: बच्चे किस बात की आशा में नीड़ों से झाँक रहे होंगे?
उत्तर – कवि ने यहाँ पक्षियों के चूजों के उदाहरण से मातापिता की स्नेह-अपेक्षा और भोजन की प्रतीक्षा चित्रित की है; बच्चे अपने माता-पिता के लौटने एवं उनकी ममता में मिलने की तीव्र कामना के कारण नीड़ों से झाँकते हैं।
प्रश्न 6: “दिन जल्दी-जल्दी ढलता है” की आवृत्ति से कविता की किस विशेषता का पता चलता है?
उत्तर – इस पंक्ति का बार-बार प्रयोग समय की गति की तीव्रता और क्षणभंगी प्रवाह को दर्शाता है, जो पाठक को चेतावनी देता है कि जीवन के क्षण छिटकते रहते हैं और लक्ष्य की प्राप्ति हेतु समय पर सदुपयोग अवरुद्ध नहीं होना चाहिए।
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अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न
प्रश्न 1: “कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर” पंक्ति में ‘झंकृत’ शब्द से क्या अभिप्राय है?
उत्तर – यहाँ ‘झंकृत’ का तात्पर्य वह कान्ति या आनंद है जो प्रेम के स्पर्श से मन में उत्पन्न होता है। कवि बताता है कि जिसने प्रेम की अनुभूति कर आई, उसके जीवन के प्रत्येक क्षण में प्रेम-झंकार गूंजते रहते हैं।
प्रश्न 2: “मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ” में ‘स्नेह-सुरा’ कैसे परिभाषित हुआ है?
उत्तर – ‘स्नेह-सुरा’ प्रेम का मधुर अमृत है। जैसे ऋतु-विकास के लिए वर्षा जल अमृत है, वैसे ही कवि के लिए स्नेह-माधुर्य जीवन का परम पोषण स्रोत है, जिससे वह शक्ति एवं उल्लास अनुभव करता है।
प्रश्न 3: “मुझसे मिलने को कौन विकल?” यह प्रश्न कवि के भाव को कैसे व्यक्त करता है?
उत्तर – इस प्रश्न में कवि की तड़पन और आशंका दोनों एक साथ व्यक्त होती है। वह स्वयं को अकेला पाता है, और किसी साथी या मार्गदर्शक के बिना अपनी यात्रापथ को अधूरा–विकलित महसूस करता है।
प्रश्न 4: “दिन जल्दी-जल्दी ढलता है” की पुनरावृत्ति से कविता में कौन-सी काव्यात्मक विशेषता स्थापित होती है?
उत्तर – यह पुनरावृत्ति लयबद्धता और कालचेतना दोनों को उभारती है। पाठक को समय की तीव्र गति का बोध कराकर कविता में संगीतात्मक ताल भी बनाए रखती है।
गहन चिंतन (Deep Thinking) प्रश्न एवं उत्तर
प्रश्न 5: कवि ने दुनिया की परवाह न करने और प्रेम-बुद्धि में लीन रहने की तुलना किन-किन वस्तुओं या क्रियाओं से की है, और इसका क्या दार्शनिक संदेश है?
उत्तर – कवि ने जीवन-भार उठाने पर भी प्रेम-झंकार लिए चलने को ‘नौका’ की चाल तथा संसार की व्यर्थ चिंताओं को ‘भीड़भाड़’ की तरह चित्रित किया है। दार्शनिक दृष्टि से यह संदेश है कि इंसान की वास्तविक उन्नति बाहरी जंजालों से दूर, भीतर की आत्मानुभूति और प्रेम-धारा में लीन होने से होती है।
प्रश्न 6: “जहाँ पर दाना रहते हैं, वहीं नादान भी होते हैं” के विरोधाभास से आप क्या सीखते हैं कि समाज में ज्ञान और अज्ञान की स्थितियाँ कैसे सह-अस्तित्व में हैं?
उत्तर – यह पंक्ति समाज की द्वैतात्मकता को उजागर करती है कि एक ही मंच पर विवेकशील बुद्धिमान और माया-लोभ में अँधे मूर्ख भी साथ रहते हैं। इससे हमें यह सीख मिलती है कि ज्ञान अर्जित करने के साथ जागरूकता और आत्मावलोकन भी जरूरी है, ताकि हम अज्ञान की अनजान चुनौतियों से स्वयं को सुरक्षित रख सकें।
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