Class 12 : हिंदी अनिवार्य – अध्याय 13.पहलवान की ढोलक
संक्षिप्त लेखक परिचय
✒️ फणीश्वरनाथ रेणु
💠 जीवन परिचय
🟢 फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म 04 मार्च 1921 को पूर्णिया ज़िले के औराही हिंगना (बिहार) में हुआ।
🟡 प्रारंभिक शिक्षा गाँव में, उच्च शिक्षा अररिया और पटना में प्राप्त की।
🔵 स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी की और 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में जेल भी गए।
🟠 वे ग्रामीण भारत के यथार्थ चित्रण और जनजीवन की सहज अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध थे।
🔴 11 अप्रैल 1977 को उनका निधन हुआ।
💠 लेखन परिचय
🌸 फणीश्वरनाथ रेणु को हिंदी साहित्य में ‘आंचलिक उपन्यासकार’ के रूप में विशेष पहचान मिली।
🌼 उनकी रचनाओं में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण जीवन, लोक संस्कृति, और बोलियों का जीवंत चित्रण मिलता है।
🌺 प्रमुख कृतियाँ – उपन्यास ‘मैला आँचल’, ‘परती परिकथा’, ‘जुलूस’ और कहानी संग्रह ‘ठुमरी’, ‘तीसरी कसम’।
🌻 उन्हें पद्मश्री सम्मान प्राप्त हुआ।
🌷 उनकी भाषा में आंचलिक शब्दावली, हास्य-व्यंग्य, और मानवीय संवेदनाएँ सहज रूप से अभिव्यक्त होती हैं।
————————————————————————————————————————————————————————————————————————————
पाठ का विश्लेषण एवं विवेचन

💠 मुख्य संदेश और प्रतिपाद्य
🟢 यह कहानी केवल एक कलाकार के जीवन की कथा नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन से लोक-कलाओं और लोक-कलाकारों के हाशिये पर चले जाने की मार्मिक गाथा है।
🟡 लुट्टन पहलवान, अपनी ढोलक और कला के साथ, महामारी से जूझते गाँव में साहस और आशा का संचार करता है।
🔵 यह ‘भारत’ की सांस्कृतिक जड़ों पर ‘इंडिया’ के आधुनिक ढांचे के हावी होने का प्रतीकात्मक चित्रण है।
💠 लुट्टन पहलवान का चरित्र-चित्रण
🌿 बचपन में माता-पिता के निधन के बाद सास के संरक्षण में पला।
🌸 अपनी ताकत और कुश्ती से नाम कमाया, श्यामनगर मेले में चाँद सिंह को हराकर ख्याति पाई।
🌼 कला और शक्ति का स्रोत ढोलक को मानता, जो हर थाप में दाँव-पेंच सिखाती –
चट्-धा, गिड़-धा = आ जा भिड़ जा
चटाक्-चट्-धा = उठाकर पटक दे
धाक-धिना, तिरकट-तिना = दाँव काटो, बाहर हो जाओ
धिना-धिना, धिक-धिना = चित करो
💠 समाज में परिवर्तन और सांस्कृतिक पतन
🌺 पुराने राजा की मृत्यु के बाद विलायत-शिक्षित नए राजकुमार ने पहलवानों को बर्खास्त कर दिया।
🌻 यह केवल एक पद से हटना नहीं, बल्कि पुरानी सांस्कृतिक धरोहर के टूटने का संकेत है।
💠 महामारी का मार्मिक चित्रण
🌿 मलेरिया और हैजे की विभीषिका, अमावस्या की ठंडी रात में भय और निराशा का माहौल।
🌼 इस अँधेरे में पहलवान की ढोलक ही साहस की आवाज़ बनती है।
🌺 यह ढोलक बीमारी नहीं हटाती, लेकिन मनोबल जगाकर मौत के डर को दूर करती है।
💠 संजीवनी शक्ति का प्रभाव
🌸 ढोलक की थाप सुनकर लोगों की आँखों में दंगल के दृश्य तैरने लगते।
🌼 शिथिल स्नायु में भी बिजली-सी ऊर्जा दौड़ जाती।
💠 पुत्रों की मृत्यु और अदम्य साहस
🌿 महामारी में दोनों बेटे भी गुजर गए, पर मरते समय ढोलक की ताल सुनने की इच्छा जताई।
🌸 पहलवान ने पूरी रात ‘चटाक्-चट-धा’ बजाते हुए उन्हें बहादुरी से विदा किया।
🌼 अगले दिन बेटों का अंतिम संस्कार कर, रात को फिर ढोलक बजाकर गाँव में हिम्मत भरी।
💠 अंतिम क्षण और मर्यादा
🌿 कुछ दिनों बाद पहलवान की भी मृत्यु हो गई।
🌸 शिष्यों ने उसकी इच्छा पूरी की – चिता पर पेट के बल सुलाना और ढोलक बजाना, क्योंकि वह जीवन में कभी ‘चित’ नहीं हुआ।
💠 आंचलिकता की विशेषताएँ
1️⃣ भाषा की सजीवता – ढोलक की थाप को ध्वन्यात्मक शब्दों में पिरोना।
2️⃣ सांस्कृतिक चित्रण – पहलवानी, दंगल, राज-दरबार और गाँव का जीवन।
3️⃣ मानवीय संवेदना – महामारी, मृत्यु और संघर्ष को करुणा व वीरता के साथ चित्रित करना।
💠 समसामयिक प्रासंगिकता
🌸 कहानी लोक-कलाओं के महत्व और उनके संरक्षण की आवश्यकता पर बल देती है।
🌼 COVID-19 जैसी आपदाओं में भी कला और संस्कृति मनोबल बनाए रखने में उतनी ही ज़रूरी है जितनी चिकित्सा।
💠 निष्कर्ष
🌟 ‘पहलवान की ढोलक’ जीवन-शक्ति, साहस, और लोक-संस्कृति की अमर गाथा है।
📌 यह दिखाती है कि परिस्थितियाँ चाहे जितनी कठिन हों, कला और साहस का संगम इंसान को जिंदा रखता है।
📜 सारांश
‘पहलवान की ढोलक’ लुट्टन पहलवान के संघर्ष, साहस और लोक-कलाओं के महत्व की कहानी है। ढोलक को गुरु मानने वाला यह कलाकार महामारी में भी गाँव में जीवटता का संचार करता है। पुत्रों की मृत्यु के बावजूद ढोलक की ताल से हिम्मत बाँटता है। यह कहानी बदलते समय में लोक-कलाओं के संकट और उनके अमर मूल्य को रेखांकित करती है।
————————————————————————————————————————————————————————————————————————————
पाठ्यपुस्तक के प्रश्न
🟢 प्रश्न 1: कुश्ती के समय ढोल की आवाज़ और लुट्टन के दाँव-पेंच में क्या तालमेल था? पाठ में आए ध्वन्यात्मक शब्द और ढोल की आवाज़ आपके मन में कैसी ध्वनि पैदा करते हैं, उन्हें शब्द दीजिए।
✨ उत्तर: कुश्ती के समय ढोल की आवाज और लुट्टन के दाँव-पेंच में अद्भुत तालमेल था। ढोल बजते ही लुट्टन की रगों में खून दौड़ने लगता था। उसे हर थाप में नए दाँव-पेंच सुनाई पड़ते थे। ढोल की आवाज उसे साहस प्रदान करती थी।
🔸 ढोल की आवाज और लुट्टन के दाँव-पेंच में निम्नलिखित तालमेल था:
🔹 चट्-धा, गिड़-धा → आ जा, भिड़ जा
🔹 चटाक्-चट्-धा → उठा पटक दे
🔹 चट्-गिड़-धा → मत डरना
🔹 धाक-धिना, तिरकट-तिना → दाँव काटो, बाहर हो जाओ
🔹 धिना-धिना, धिक्-धिना → चित करो, चित करो
🔹 ढाक्-ढिना → वाह पट्ठे
ये ध्वन्यात्मक शब्द हमारे मन में उत्साह का संचार करते हैं और संघर्ष करने की चेतना बढ़ाते हैं।
🟢 प्रश्न 2: कहानी के किस-किस मोड़ पर लुट्टन के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आए?
✨ उत्तर: लुट्टन पहलवान का जीवन उतार-चढ़ावों से भरपूर रहा। कहानी में लुट्टन के जीवन में निम्नलिखित परिवर्तन आए:
🔹 1. बचपन की त्रासदी: नौ वर्ष की अवस्था में माता-पिता की मृत्यु हो गई। विधवा सास ने उसका पालन-पोषण किया।
🔹 2. प्रसिद्धि की शुरुआत: श्यामनगर के मेले में चाँद सिंह पहलवान को हराकर राजकीय पहलवान का दर्जा प्राप्त किया।
🔹 3. राजाश्रय प्राप्ति: राजा साहब की स्नेह-दृष्टि पाकर राजदरबार में स्थाई पहलवान बना। पन्द्रह वर्षों तक अजेय रहा।
🔹 4. परिवारिक खुशी: दो पहलवान बेटों का जन्म हुआ और उन्हें भी राजाश्रित पहलवान बनाया।
🔹 5. संकट काल: राजा की मृत्यु के बाद विलायत से लौटे राजकुमार ने उसे और उसके बेटों को राजदरबार से निकाल दिया।
🔹 6. गाँव में वापसी: गाँव लौटकर नौजवानों और चरवाहों को कुश्ती सिखाने लगा।
🔹 7. महान् त्याग: गाँव में महामारी के दौरान ढोलक बजाकर लोगों में संजीवनी शक्ति भरता रहा।
🔹 8. पुत्र-वियोग: दोनों बेटों की महामारी से मृत्यु हो गई।
🔹 9. अंतिम विदाई: कुछ दिनों बाद स्वयं भी मृत्यु को प्राप्त हुआ।
🟢 प्रश्न 3: लुट्टन पहलवान ने ऐसा क्यों कहा होगा कि मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है?
✨ उत्तर: लुट्टन पहलवान ने ढोल को अपना गुरु माना और एकलव्य की भाँति हमेशा उसी की आज्ञा का अनुकरण करता रहा।
🔹 1. स्वयं सीखी कुश्ती: लुट्टन ने किसी उस्ताद या गुरु से कुश्ती के दाँव-पेंच नहीं सीखे थे। उसे कुश्ती करते समय ढोल की ध्वनि से उत्तेजना और संघर्ष करने की प्रेरणा मिलती थी।
🔹 2. प्रेरणा स्रोत: चाँद सिंह पहलवान के साथ कुश्ती लड़ते समय वह ढोल की ध्वनि से दाँव-पेंच का अर्थ लेता रहा और उसी के अनुसार कुश्ती लड़कर विजयी हुआ।
🔹 3. जीवन-साथी: ढोल को ही उसने अपने बेटों का गुरु बनाकर शिक्षा दी कि सदा इसको मान देना। ढोल लेकर ही वह राज-दरबार से रुखसत हुआ।
🔹 4. शिक्षा का माध्यम: ढोल बजा-बजाकर ही उसने अपने अखाड़े में बच्चों-लड़कों को शिक्षा दी, कुश्ती के गुर सिखाए।
🔹 5. संकट में सहारा: ढोल से ही उसने गाँव वालों को भीषण दुख में भी संजीवनी शक्ति प्रदान की थी। ढोल के सहारे ही बेटों की मृत्यु का दुख पाँच दिन तक दिलेरी से सहन किया।
यह सब देखकर लगता है कि उसका ढोल उसके जीवन का संबल, जीवन-साथी ही था।
🟢 प्रश्न 4: गाँव में महामारी फैलने और अपने बेटों के देहांत के बावजूद लुट्टन पहलवान ढोल क्यों बजाता रहा?
✨ उत्तर: गाँव में सूखे और महामारी के कारण चारों ओर निराशा और मृत्यु का सन्नाटा फैला हुआ था। ऐसी परिस्थिति में लुट्टन पहलवान निम्नलिखित कारणों से ढोल बजाता रहा:
🔹 1. लोगों में जीवन-शक्ति का संचार: ढोलक की आवाज़ सुनकर लोगों में जीने की इच्छा जाग उठती थी। पहलवान नहीं चाहता था कि उसके गाँव का कोई आदमी अपने संबंधी की मौत पर मायूस हो जाए।
🔹 2. साहस की प्रेरणा: ढोल की आवाज महामारी से पीड़ित लोगों को मृत्यु से लड़ने का साहस देती थी। यह उन्हें संघर्ष करने की शक्ति एवं उत्तेजना प्रदान करती थी।
🔹 3. सामुदायिक दायित्व: वास्तव में ढोल बजाकर पहलवान ने अन्य ग्रामीणों को जीने की कला सिखाई। वह अपने सामाजिक दायित्व को निभा रहा था।
🔹 4. व्यक्तिगत दुख को भुलाना: साथ ही अपने बेटों की अकाल मृत्यु के दुख को भी वह कम करना चाहता था। ढोल बजाना उसके लिए दुख से मुक्ति का साधन था।
🔹 5. जीवन-संदेश: वह यह संदेश देना चाहता था कि विपरीत परिस्थितियों में भी हार नहीं मानना चाहिए।
🟢 प्रश्न 5: ढोलक की आवाज़ का पूरे गाँव पर क्या असर होता था?
✨ उत्तर: महामारी की त्रासदी से जूझते हुए ग्रामीणों पर ढोलक की आवाज का गहरा प्रभाव पड़ता था:
🔹 1. संजीवनी शक्ति का संचार: ढोलक की आवाज संजीवनी शक्ति की तरह मौत से लड़ने की प्रेरणा देती थी। गाँव के अर्द्धमृत, औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी।
🔹 2. दंगल के दृश्य का साकार होना: यह आवाज बूढ़े-बच्चों व जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य उपस्थित कर देती थी।
🔹 3. नई ऊर्जा का संचार: उनकी स्पंदन-शक्ति-शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी। निर्जीव शरीरों में नई ऊर्जा का संचार होता था।
🔹 4. भय से मुक्ति: ठीक है कि ढोलक की आवाज में बुखार को दूर करने की ताकत न थी, पर उसे सुनकर मरते हुए प्राणियों को अपनी आँखें मूंदते समय कोई तकलीफ़ नहीं होती थी।
🔹 5. मृत्यु भय से मुक्ति: उस समय वे मृत्यु से नहीं डरते थे। रात्रि की सारी भीषणता को ललकारकर चुनौती देती रहती थी।
🔹 6. सामुदायिक एकजुटता: ढोलक की आवाज से पूरे गाँव में एकजुटता की भावना पैदा होती थी।
🟢 प्रश्न 6: महामारी फैलने के बाद गाँव में सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य में क्या अंतर होता था?
✨ उत्तर: महामारी ने सारे गाँव को बुरी तरह से प्रभावित किया था। सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य में निम्नलिखित अंतर होता था:
🔸 सूर्योदय के समय:
🔹 लोग सुर्योदय होते ही अपने मृत संबंधियों की लाशें उठाकर गाँव के श्मशान की ओर जाते थे
🔹 अंतिम संस्कार के लिए शवयात्राएं निकलती रहती थीं
🔹 दिन की शुरुआत मातम और वेदना से होती थी
🔹 रात भर की मृत्यु का हिसाब-किताब लगता था
🔸 सूर्यास्त के समय:
🔹 सारे गाँव में मातम छा जाता था
🔹 किसी न किसी बच्चे, बूढ़े अथवा जवान के मरने की खबर आग की तरह फैल जाती थी
🔹 रात्रि की भयावहता का आरंभ हो जाता था
🔹 सारा गाँव श्मशान घाट बन चुका था
🔹 भविष्य की अनिश्चितता और डर का माहौल होता था
निष्कर्ष: इस प्रकार सूर्योदय मृत्यु के परिणाम लेकर आता था जबकि सूर्यास्त मृत्यु की आशंका और भय लेकर आता था। दोनों समय गाँव में दुख और निराशा का वातावरण रहता था।
————————————————————————————————————————————————————————————————————————————
अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न
🎯 बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQs)
🔹 प्रश्न 1: लुट्टन पहलवान की माता-पिता की मृत्यु किस उम्र में हुई थी?
🅐 सात वर्ष
🅑 नौ वर्ष ✅
🅒 ग्यारह वर्ष
🅓 तेरह वर्ष
🔹 प्रश्न 2: श्यामनगर के मेले में लुट्टन ने किस प्रसिद्ध पहलवान को हराया था?
🅐 गामा पहलवान को
🅑 चाँद सिंह को ✅
🅒 भीम सिंह को
🅓 राजा पहलवान को
🔹 प्रश्न 3: लुट्टन पहलवान कितने वर्षों तक राजदरबार में अजेय रहा?
🅐 दस वर्ष
🅑 बारह वर्ष
🅒 पंद्रह वर्ष ✅
🅓 बीस वर्ष
🔹 प्रश्न 4: गाँव में कौन सी महामारी फैली थी?
🅐 हैजा और टायफायड
🅑 मलेरिया और हैजा ✅
🅒 चेचक और हैजा
🅓 डेंगू और मलेरिया
🔹 प्रश्न 5: लुट्टन पहलवान की मृत्यु के बाद उसकी लाश किस अवस्था में पाई गई?
🅐 पेट के बल
🅑 चित अवस्था में ✅
🅒 करवट लेकर
🅓 बैठी हुई अवस्था में
✏ लघु उत्तरीय प्रश्न
🔹 प्रश्न 1: लुट्टन पहलवान का पालन-पोषण किसने किया और क्यों?
उत्तर:
✅ उसकी विधवा सास ने, क्योंकि नौ साल की उम्र में माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। बचपन में शादी हो जाने के कारण सास ने पुत्रवत प्रेम व पालन किया।
🔹 प्रश्न 2: राजकुमार ने पहलवानों को दरबार से क्यों निकाला?
उत्तर:
✅ विलायत से लौटकर पाश्चात्य सभ्यता अपनाई, भारतीय परंपराओं में रुचि न रही, इसलिए पहलवानों को निकालकर नौकर-चाकर रखे।
🔹 प्रश्न 3: लुट्टन ने अपने बेटों को क्या सीख दी?
उत्तर:
✅ ढोल को गुरु मानकर उसका सम्मान करना और कुश्ती में लय-ताल के महत्व को समझना।
🔹 प्रश्न 4: महामारी के समय ढोलक की आवाज़ ने गाँववालों की कैसे सहायता की?
उत्तर:
✅ मृत्यु-भय को कम किया, लोगों में संजीवनी शक्ति भरी, दंगल के दृश्य याद दिलाकर उत्साह जगाया।
🔹 प्रश्न 5: लुट्टन पहलवान के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता क्या थी?
उत्तर:
✅ अदम्य साहस और दृढ़ संकल्प — हर कठिनाई में डटे रहना और दूसरों को प्रेरित करना।
📚 मध्यम उत्तरीय प्रश्न
🔹 प्रश्न 1: कहानी में सामाजिक परिवर्तन और पुराने-नए युग का द्वंद्व
उत्तर:
🌿 पुराना युग: परंपराओं का सम्मान, पहलवानी को राजाश्रय, लुट्टन जैसे कलाकारों की प्रतिष्ठा।
🌿 नया युग: पाश्चात्य सभ्यता अपनाना, पहलवानी को पिछड़ा मानना, कलाकारों की बेरोज़गारी।
🌿 परिणाम: भारत की सांस्कृतिक जड़ों पर चोट, परंपरागत कलाओं का संकट।
🔹 प्रश्न 2: लुट्टन पहलवान के आदर्श गुण
उत्तर:
💪 संघर्षशीलता
🎵 कला के प्रति समर्पण
🤝 सामाजिक दायित्व
👨👦 पितृत्व भाव
🛡 अडिग साहस
🔹 प्रश्न 3: ढोलक का प्रतीकात्मक महत्व
उत्तर:
🌟 जीवन-शक्ति का प्रतीक
🎭 भारतीय संस्कृति का प्रतीक
📜 गुरु-शिष्य परंपरा का प्रतीक
⚔ संघर्ष का प्रतीक
🤲 सामुदायिकता का प्रतीक
🔹 प्रश्न 4: महामारी के दौरान लुट्टन की भूमिका
उत्तर:
😷 भयावह मृत्यु-दृश्य में मनोबल बनाए रखा
🥁 ढोलक से मानसिक चिकित्सा
👑 सच्चा सामुदायिक नेता
💡 जीने की प्रेरणा देने वाला
🏆 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1.’पहलवान की ढोलक’ में आधुनिकीकरण और लोक-संस्कृति का संकट
उत्तर:
🔸 आधुनिकीकरण की चुनौतियां
दो युगों का संधिकाल
पुराने राजा का परंपरा-प्रेम
नए राजकुमार का पाश्चात्य झुकाव
🔸 लोक-संस्कृति का संकट
पहलवानी, कुश्ती, ढोल-नगाड़ों की उपेक्षा
कलाकारों की बेरोज़गारी
“भारत” पर “इंडिया” का प्रभाव
🔸 लुट्टन पहलवान का संघर्ष
👦 बचपन का अनाथ जीवन
🥇 कुश्ती में कीर्तिमान
🛡 आर्थिक व सामाजिक संघर्ष
💔 महामारी में बेटों की मृत्यु
🙌 फिर भी समाज-सेवा में अडिग
🔸 ढोलक का महत्व
जीवन-ऊर्जा का संचार
भारतीय परंपरा का संरक्षण
गुरु के समान सम्मान
🔸 समसामयिक प्रासंगिकता
आज भी लोक-कलाओं का संकट
कलाकारों की उपेक्षा
वैश्वीकरण का प्रभाव
COVID-19 जैसे समय में कला की भूमिका
🔸 संदेश
प्रगति का अर्थ विरासत को त्यागना नहीं
परंपराओं को नए संदर्भ में आगे बढ़ाना
————————————————————————————————————————————————————————————————————————————