Class 11 : हिंदी साहित्य – Lesson 13. संध्या के बाद
संक्षिप्त लेखक परिचय
📘 लेखक परिचय — सुमित्रानंदन पंत
🟢 सुमित्रानंदन पंत का जन्म सन 1900 में उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कौसानी गाँव में हुआ था।
🟡 जन्म के कुछ ही घंटों पश्चात उनकी माता का निधन हो गया, जिसके कारण उनका बचपन प्रकृति की गोद में बीता।
🔵 प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में तथा उच्च शिक्षा बनारस और इलाहाबाद में हुई।
🔴 पंत गांधीवादी विचारधारा से अत्यंत प्रभावित थे और भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति आंदोलन में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
🟢 वे छायावादी काव्यधारा के प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं।
🟡 उन्होंने चौथी कक्षा से ही कविता लेखन प्रारंभ किया, किंतु वास्तविक प्रसिद्धि उन्हें 1928 में प्रकाशित प्रथम काव्य-संग्रह ‘पल्लव’ से प्राप्त हुई।
🔵 उनकी प्रमुख कृतियों में ‘वीणा’, ‘ग्रंथि’, ‘पल्लव’, ‘युगांत’, ‘युगवाणी’, ‘ग्राम्या’, ‘स्वर्णकिरण’, ‘उत्तरा’, ‘कला और बूढ़ा चाँद’ तथा ‘लोकायतन’ शामिल हैं।
🔴 उन्हें ‘कला और बूढ़ा चाँद’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, ‘चिदम्बरा’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा ‘लोकायतन’ के लिए सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार प्राप्त हुआ।
🟢 सन 1977 में उनका निधन हुआ।
📖 संध्या के बाद — कविता परिचय
यह कविता सुमित्रानंदन पंत के काव्य-संग्रह ‘ग्राम्या’ से ली गई है और एनसीईआरटी (कक्षा 11, अंतरा भाग-1) में संकलित है।
कविता में कवि ने ढलती संध्या के समय गंगा तट के प्राकृतिक सौंदर्य, ग्रामीण जनजीवन की वास्तविकता और मानवीय संवेदना का अत्यंत सजीव चित्रण किया है।
🌄 काव्य-सारांश
🔹 कवि संध्या को एक पक्षी के रूप में चित्रित करता है जो पंख समेटकर वृक्षों की फुनगियों पर जा बैठी है।
🔹 सूर्य की ताम्र-किरणों से पीपल के पत्ते सुनहरी आभा से दमक रहे हैं और झरनों का जल स्वर्णिम धाराओं-सा प्रवाहित हो रहा है।
🔹 सूर्य क्षितिज पर ज्योति-स्तंभ की भाँति नदी में धँसता प्रतीत होता है और गंगा का जल चितकबरे केंचुल-सा झिलमिला उठता है।
🔹 पक्षियों का कलरव, गायों का लौटना, किसानों का विश्राम—ये सब मिलकर संध्या की लयात्मक सौंदर्यता को जीवंत करते हैं।
🔸 रात्रि का अंधकार गहराता है—सन्नाटा, कुत्तों का भौंकना, सियारों की हुआँ—सब मिलकर एक उदास रात्रि का संगीत रचते हैं।
🌾 प्रगतिशील चेतना
🔹 कविता के उत्तरार्ध में कवि ने सामाजिक विषमता और आर्थिक अन्याय का यथार्थ चित्रण किया है।
🔹 गाँव का एक छोटा दुकानदार सोचता है कि वह शहरी बनियों जैसा महाजन क्यों नहीं बन सकता।
🔹 यह प्रश्न कवि की प्रगतिशील दृष्टि को प्रकट करता है—जहाँ वह समाज में समान अवसर और न्यायपूर्ण व्यवस्था की आवश्यकता पर बल देता है।
✨ मुख्य बिंदु संक्षेप में:
🔹 प्रमुख रचनाएँ: वीणा, पल्लव, ग्राम्या, स्वर्णकिरण, उत्तरा, चिदम्बरा, लोकायतन
🔹 काव्य-विशेषता: छायावादी प्रकृति-चित्रण, प्रगतिशील चेतना, मुक्त छंद, तत्सम शब्दावली
🔹 विचारधारा: छायावाद, प्रगतिवाद, मानवतावाद, सामाजिक यथार्थवाद
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पाठ का विश्लेषण एवं विवेचन
🌟 मुख्य निष्कर्ष
“संध्या के बाद” काव्यांश में सुमित्रानंदन पंत ने ग्रामीण जीवन के चराचर जगत को संध्याकालीन सौंदर्य-दर्शन एवं जन-जीवन की यथार्थता दोनों का समन्वय कर चित्रित किया है। प्रकृति की त्रिगुणात्मक विवेचना—दृश्य, श्रव्य और भाव—के माध्यम से उन्होंने जीवन-दुःख और आशा का गहन द्वन्द्व प्रस्तुत किया है।
🌿 विषयवस्तु
कविता का आरंभ उस समय से होता है जब दिन की लालिमा सिकुड़कर वृक्षों की ऊँची टहनी पर विराजमान हो जाती है। संध्या रूपी पक्षी की लाली ताम्रवर्ण पत्तों पर समा जाती है, झरनों की सुनहरी धाराएँ और गंगा-जल का विश्लथ चितकबरा रंग दृश्य को आत्मीय बनाते हैं। इसके पश्चात् कवि वर्णन करते हैं कि संसाधनों के अभाव में ग्रामीण जन-जीवन किस प्रकार संघर्षरत है—विधवाएँ आरती में मग्न, पशु-पक्षी घर वापसी पर रेत में छिपते, व्यापारी-नाविक थके पाये जाते। अन्त में रात की ठण्ड में जलती अनगिनत छोटी-छोटी लौयाँ एवं धुएँ की हल्की चादर से बने सपनों तथा वेदनाओं का जाल उपस्थित होता है।
🏞️ प्रसंग
प्रस्तुत पद्यांश ‘अंतरा’ भाग-I की काव्यावली ‘ग्राम्या’ से लिया गया है। परिप्रेक्ष्य २०वीं सदी के आरंभ का है, जब ग्रामीण भारत में संध्याकाल केवल दिन-रात्रि का परिवर्तन नहीं, अपितु जीवन-दृश्य का द्वैत भी उत्पन्न करता था। अंधकार के आते ही नदी तट पर धूप-छाँव का धुंधलापन, खेत-खलिहान की सुनसान सन्नाटा और बाजारों में व्यापारी का विरह-गीत सभी मिलकर एक जीवन्त राग रचते हैं।
💫 भावार्थ
सिमटा पंख साँझ की लाली: संध्या का प्रकाश अवलंबित होकर वृक्षों की ऊँचाई पर आ जाता है, जैसे दिन का रक्तिम पंख सिकुड़ गया हो।
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर: पीपल के पत्तों की ताम्रपर्णी आभा झरनों की सुनहरी धाराओं हेतु उपमा बनकर प्रकृति-रूपक को सौंदर्यमय बनाती है।
ज्योति स्तंभ-सा धँस सरिता में: अस्ताचलगामी सूर्य-प्रतिबिंब नदी में प्रकाश-स्तंभ सी गहरा झांकता प्रतीत होता है।
वृद्ध जीव्या विस्थल से केंचुल-सा लगता चितकबरा गंगाजल: मंद-चंचल गंगा का जल शुष्क साँप की तरह विषमता-सहित विशाल, किंतु थका हुआ दिखता है।
पशु-पक्षी, किसान, वृद्धाएँ, व्यापारी, नाविक तथा रात के वाहन चालक सभी संध्या के आगमन पर बदलते जीवन-रूपों का विभव उकेरते हैं।
अन्त में दीप-धुआँ के बीच बुने सपने और वेदनाएँ दर्शकों को ग्रामीण जीवन की दैनंदिन दशा एवं समाज–मानव संतुलन दोनों का अहसास कराते हैं।
🔆 प्रतीक
संध्या की लाली: दिन का प्राणवान रंग जो जीवन-उत्कर्ष का सूचक है, पर सिमटने पर क्षणभंगुरता का द्योतक भी।
स्वर्णिम निर्झर: सम्पन्नता का आभास, किन्तु झरना सिकुड़ना बताता है संसाधनों का संकुचन।
चितकबरा गंगाजल: जीवन-धारा की द्वैध भावभूमि—विशालता के साथ थकान।
विधवाएँ: पितृसावपा विहीन समाज की पीड़ा, जहाँ आरती विध्वंसक शोकगीत बनकर बहती है।
शंख-घंटा: आडम्बरमयी भक्ति, जिनकी ध्वनि गंगा की लहरों में अनवरत प्रतिध्वनित होती है।
पक्षियों की चहचाहट: स्वतंत्रता-प्रार्थना की स्वर-शक्ति, जो अँधेरे में भी जीवित रहती है।
दीप-धुआँ: आशा-देह की लौ, जो धुएँ की आड़ में भी जलकर जीवन-मंडल को रोशन करती है, पर धुआँ निराशा का आवरण भी है।
🖋️ शैली
कविता मुक्तछंद में रची गई है, जहाँ अलंकारात्मक अनुप्रास, उपमा एवं रूपकों का समन्वय दृश्यात्मकता एवं श्रवणात्मकता दोनों को सशक्त बनाता है।
वर्णन प्रवाह में लय-बाध्य नहीं, किंतु आवेगी संध्यानुभूति उत्पन्न करने वाला है।
शब्द चयन में तत्सम–तद्भव संतुलन, हर पंक्ति शुद्ध हिन्दी की शिल्पकला दर्शाती है।
एक–एक छवि संध्या-परिवर्तन के विभिन्न चरणों को भावात्मक रूप में उद्घाटित करती है।
🧭 विचार
संध्या के आगमन पर जहाँ एक ओर प्रकृति का क्लान्तिमय सौंदर्य दृष्टिगोचर होता है, वहीं ग्रामीण जन-जीवन की सीमित साधन-संकट झलकते हैं।
प्रकृति एवं मानव जीवन का सह अस्तित्व, दोनों ही परस्पर संतुलन में बँधा हुआ है; यदि प्रकृति सुंदर होती है, तब भी मनुष्य की पीड़ा छिपी रहती है।
आशा और वेदना का समवर्तक अंधकार समय, जहाँ प्रकाश-अंश और निराशा-परछाई दोनों एक साथ उपस्थित होते हैं।
ग्रामीण जीवन की यथार्थता तब भी कविता में बनी रहती है जब प्राकृतिक सौंदर्य चरम सीमा पर हो।
🗣️ भाषा
भाषा पूर्णतः शुद्ध हिन्दी में उपन्यास-लयमयी हैं; कोई अंग्रेजी शब्द या देवनागरी अंक नहीं।
अलंकारात्मक अनुप्रास–“स्वर्णिम निर्झर”, “चितकबरा गंगाजल”–भावानुभूति को तीव्र करते हैं।
क्षेत्रीय बोली के अनछुए शब्द नहीं, किंतु ग्रामीण परिवेश का प्रभाव स्थान-विशेष के मुहावरों के अभाव में भी स्पष्ट है।
हर पंक्ति में एक आधुनिकता-लय है, जो छायावादिन विचारधारा के प्रभाव को दर्शाती है।
🏘️ सामाजिक–सांस्कृतिक संदर्भ
कविता उस समय की लघु-उपजाऊ ग्राम्य-जीवन की सीमित संसाधन-स्थिति को उजागर करती है, जब औद्योगीकरण न के बराबर था।
संध्याकालीन आरती और पशु-चपलता ग्रामीण परम्पराओं का लयात्मक मिश्रण प्रस्तुत करती है।
विधवाओं की पीड़ा और किसान की थकन तत्कालीन समाज में अमानवीय आर्थिक विषमता का प्रतीक है।
गाँव-समाज में आशा तब भी जीवित रहती थी जब समाज-व्यवस्था ने मौलिक मानवाधिकारों की उपेक्षा की।
🔎 गहन विश्लेषण
संवेदनात्मक छायांकन: प्रकृति की छवियाँ अत्यंत सूक्ष्म, किंतु मार्मिक हैं—जैसे सूर्य की लालिमा का सिकुड़ना वृक्ष-शिखरों पर बैठना, झरनों का सोने सी धारा बनना। ये सभी प्रकृति के क्षणभंगुर पक्ष को दर्शाते हैं।
मानव-जीवन प्रतिबिम्ब: विधवाओं का आरती-शोक और पशु-पक्षियों का घर लौटना दोनों ही जीवन के अन्तर्विरोधों का द्योतक हैं।
धुआँ एवं दीप: संकेत देते हैं कि ग्रामीण सामूहिक चेतना में आशा और दुख दोनों एवँ समाहित हैं। दीपक की लौ जलेगी पर धुआँ उसकी ऊँचाई सीमित कर देगा।
यथार्थ एवं कल्पना: कवि ने कल्पनाशील रूपकों के साथ यथार्थवादी जन-जीवन को संतुलित किया है, जिससे पाठक स्वप्नदृष्टि से जाग्रत यथार्थ तक मार्ग तय करता है।
📖 उपसंहार
“संध्या के बाद” कविता में संध्याकालीन ग्रामीण परिवेश का न केवल दृश्य-सौंदर्य, अपितु जीवन-दुःख और आशा का द्वैत भी समाहित है। सुमित्रानंदन पंत ने मुक्तछंद के माध्यम से दृश्यात्मक, श्रवणात्मक और भावात्मक स्तर पर पाठक को संध्या के वैभव, अँधेरे की गहराई और मानव-मन की पीड़ा—तीनों का अनुभव कराते हुए रचना को शाश्वत बना दिया है। ग्रामीण जीवन की सीमित साधन-संकट की पृष्ठभूमि में जब प्रकाश-रश्मियाँ, पशु-पक्षी, किसान तथा दीप-धुआँ एक साथ उपस्थित होते हैं, तब कविता सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ के साथ गहन मानवीय चिंतन का संवाद भी आरंभ कर देती है।
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पाठ्यपुस्तक के प्रश्न
🟠 प्रश्न 1: संध्या के समय प्रकृति में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं, कविता के आधार पर लिखिए।
🔵 उत्तर: संध्या के समय प्रकृति में अनेक परिवर्तन दिखाई देते हैं। आकाश का रंग सुनहरा और लालिमा युक्त हो जाता है, सूर्य अस्त होते हुए धरती को स्वर्णिम आभा से भर देता है। पवन में शीतलता आ जाती है, पक्षियों के समूह अपने घोंसलों की ओर लौटने लगते हैं। वातावरण में शांति और सौम्यता का संचार होता है और प्रकृति एक अलौकिक सौंदर्य से भर जाती है।
🟠 प्रश्न 2: पंत जी ने नदी के तट का जो वर्णन किया है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
🔵 उत्तर: पंत जी ने नदी के तट को अत्यंत सुंदर और शांतिपूर्ण रूप में प्रस्तुत किया है। नदी का जल मंद गति से बहता हुआ मन को शीतलता प्रदान करता है। तट पर पेड़-पौधों की हरियाली और फूलों की सुगंध वातावरण को और भी मनमोहक बना देती है। सूर्य की ढलती किरणें जल पर चमकती हैं और दृश्य को स्वप्निल बना देती हैं।
🟠 प्रश्न 3: बस्ती के छोटे से जीवन के अवसाद को किन-किन उपमाओं द्वारा अभिव्यक्त किया गया है?
🔵 उत्तर: कवि ने बस्ती के छोटे से जीवन के अवसाद को अनेक उपमाओं द्वारा व्यक्त किया है। उन्होंने इसे ठहरी हुई नदी, बुझती दीपशिखा और स्थिर वातावरण से तुलना की है। यह जीवन नीरस और गति-शून्य प्रतीत होता है, जिसमें संघर्ष और उत्साह का अभाव है।
🟠 प्रश्न 4: लाला के मन में ऊबनेवाली दृश्या को अपने शब्दों में लिखिए।
🔵 उत्तर: लाला के मन में एकरूपता और नीरसता से उपजी ऊब दिखाई देती है। उसे लगता है कि जीवन में कोई नवीनता नहीं रही और सब कुछ स्थिर और बंधा हुआ है। यह ऊब समाज के यांत्रिक जीवन और व्यक्ति की जड़ मानसिकता का प्रतीक है।
🟠 प्रश्न 5: सामाजिक समानता की छवि की कल्पना किस तरह अभिव्यक्त हुई है?
🔵 उत्तर: कविता में सामाजिक समानता की छवि प्रकृति के माध्यम से व्यक्त हुई है। जैसे संध्या का समय सभी को समान रूप से शांति और सुकून प्रदान करता है, वैसे ही समाज में भी सभी वर्गों के बीच समानता और सहयोग होना चाहिए। यह समानता समाज में सौहार्द और संतुलन का आधार बनती है।
🟠 प्रश्न 6: “कर्म और गुण के समान…………हो वितरण” पंक्तियों के माध्यम से कवि कैसे समाज की ओर संकेत कर रहे हैं?
🔵 उत्तर: इन पंक्तियों के माध्यम से कवि संकेत करते हैं कि समाज में न्याय और समानता तभी संभव है जब कर्म और गुण के आधार पर ही संसाधनों और अवसरों का वितरण हो। जन्म, जाति या संपत्ति के आधार पर नहीं बल्कि व्यक्ति की क्षमता और योग्यता के आधार पर ही समाज में स्थान और सम्मान मिलना चाहिए।
🟠 प्रश्न 7: निम्नलिखित पंक्तियों का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए —
(क) तट पर बबूलों-सी बुढ़ियाएँ
🔵 उत्तर: इन पंक्तियों में कवि ने जीवन के अंतिम चरण में पहुँच चुकी बुढ़ियाओं की तुलना बबूल के वृक्षों से की है, जो अब भी धरती से जुड़े रहकर जीवन का बोझ उठा रही हैं। यह उपमा जीवन की स्थिरता और सहनशीलता को दर्शाती है।पाठ: संध्या के बाद | कोड 2
🟠 प्रश्न 1: संध्या के समय प्रकृति में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं, कविता के आधार पर लिखिए।
🔵 उत्तर: संध्या के समय प्रकृति में अनेक परिवर्तन दिखाई देते हैं। आकाश का रंग सुनहरा और लालिमा युक्त हो जाता है, सूर्य अस्त होते हुए धरती को स्वर्णिम आभा से भर देता है। पवन में शीतलता आ जाती है, पक्षियों के समूह अपने घोंसलों की ओर लौटने लगते हैं। वातावरण में शांति और सौम्यता का संचार होता है और प्रकृति एक अलौकिक सौंदर्य से भर जाती है।
🟠 प्रश्न 2: पंत जी ने नदी के तट का जो वर्णन किया है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
🔵 उत्तर: पंत जी ने नदी के तट को अत्यंत सुंदर और शांतिपूर्ण रूप में प्रस्तुत किया है। नदी का जल मंद गति से बहता हुआ मन को शीतलता प्रदान करता है। तट पर पेड़-पौधों की हरियाली और फूलों की सुगंध वातावरण को और भी मनमोहक बना देती है। सूर्य की ढलती किरणें जल पर चमकती हैं और दृश्य को स्वप्निल बना देती हैं।
🟠 प्रश्न 3: बस्ती के छोटे से जीवन के अवसाद को किन-किन उपमाओं द्वारा अभिव्यक्त किया गया है?
🔵 उत्तर: कवि ने बस्ती के छोटे से जीवन के अवसाद को अनेक उपमाओं द्वारा व्यक्त किया है। उन्होंने इसे ठहरी हुई नदी, बुझती दीपशिखा और स्थिर वातावरण से तुलना की है। यह जीवन नीरस और गति-शून्य प्रतीत होता है, जिसमें संघर्ष और उत्साह का अभाव है।
🟠 प्रश्न 4: लाला के मन में ऊबनेवाली दृश्या को अपने शब्दों में लिखिए।
🔵 उत्तर: लाला के मन में एकरूपता और नीरसता से उपजी ऊब दिखाई देती है। उसे लगता है कि जीवन में कोई नवीनता नहीं रही और सब कुछ स्थिर और बंधा हुआ है। यह ऊब समाज के यांत्रिक जीवन और व्यक्ति की जड़ मानसिकता का प्रतीक है।
🟠 प्रश्न 5: सामाजिक समानता की छवि की कल्पना किस तरह अभिव्यक्त हुई है?
🔵 उत्तर: कविता में सामाजिक समानता की छवि प्रकृति के माध्यम से व्यक्त हुई है। जैसे संध्या का समय सभी को समान रूप से शांति और सुकून प्रदान करता है, वैसे ही समाज में भी सभी वर्गों के बीच समानता और सहयोग होना चाहिए। यह समानता समाज में सौहार्द और संतुलन का आधार बनती है।
🟠 प्रश्न 6: “कर्म और गुण के समान…………हो वितरण” पंक्तियों के माध्यम से कवि कैसे समाज की ओर संकेत कर रहे हैं?
🔵 उत्तर: इन पंक्तियों के माध्यम से कवि संकेत करते हैं कि समाज में न्याय और समानता तभी संभव है जब कर्म और गुण के आधार पर ही संसाधनों और अवसरों का वितरण हो। जन्म, जाति या संपत्ति के आधार पर नहीं बल्कि व्यक्ति की क्षमता और योग्यता के आधार पर ही समाज में स्थान और सम्मान मिलना चाहिए।
🟠 प्रश्न 7: निम्नलिखित पंक्तियों का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए —
(क) तट पर बबूलों-सी बुढ़ियाएँ
🔵 उत्तर: इन पंक्तियों में कवि ने जीवन के अंतिम चरण में पहुँच चुकी बुढ़ियाओं की तुलना बबूल के वृक्षों से की है, जो अब भी धरती से जुड़े रहकर जीवन का बोझ उठा रही हैं। यह उपमा जीवन की स्थिरता और सहनशीलता को दर्शाती है।
पाठ: संध्या के बाद | कोड 2
🟠 8. आशय स्पष्ट कीजिए—
(क) ताम्रपर्ण, पीपल से, श्याममुख/झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर!
(ख) दीप शिखा-सा ज्वलित कलश/ नभ में उठकर करता नीराजन!
(ग) सोन खगों की पाँति/आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित!
(घ) मन से कटु अवसाद शांति/ आँखों के आगे बुनती जाला!
(ड.) क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यौं/ गोपन मन को दे दी हो भाषा!
(च) बिना आय की क्लांति बन रही/ उसके जीवन की परिभाषा!
(छ) व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी/ दोषी जन के दुःख क्लेश की।
🔵 उत्तर: इन पंक्तियों में कवि संध्या-बेला के प्राकृतिक सौंदर्य और उससे उपजी मानवीय संवेदनाओं को सूक्ष्मता से उद्घाटित करता है। (क) में पीपल के ताँबे-से दमकते पत्तों पर संध्या की सुनहरी किरणें झरती दिखाई देती हैं; श्यामवर्ण आकाश के बीच यह स्वर्णिम धाराएँ प्रकृति को अलौकिक बना देती हैं। (ख) में ढलता सूर्य दीप-शिखा जैसा दहकता कलश बनकर आकाश में मानो जग का नीराजन करता है—पूरे विश्व पर शुभ्र, पावन आभा बिखेरता है। (ग) में सवान जैसी सुनहरी चमक लिए पक्षियों की कतारों की भीगी-सी कूजन मौन आकाश को गूँज से भर देती है; नीरव नभ भावपूर्ण हो उठता है। (घ) में प्रकृति की यह शांति मन के कटु अवसाद को धोती है और आँखों के सामने एक कोमल, सुकुमार सौंदर्य का जाल बुन देती है, जिससे भीतर शीतलता उतरती है। (ड.) में क्षीण, मृदु ज्योति चुपचाप जैसे अंतरमन को वाणी दे देती है—मन की गोपनीय भावनाएँ व्यक्त होने लगती हैं। (च) में बस्ती का यथार्थ उभरता है—आय के बिना थकान और जीविका का संघर्ष ही किसी के जीवन की परिभाषा बनता जाता है; यह सामाजिक विषमता का चित्र है। (छ) में कवि स्पष्ट करता है कि जन-जीवन के दुःख का कारण कोई अकेला व्यक्ति नहीं, बल्कि दुनिया की जड़, अन्यायपूर्ण परिपाटियाँ हैं; दोष व्यवस्था का है, जिसके कारण जन के क्लेश बढ़ते हैं।
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अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न
🌟 बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQs)
🟢 प्रश्न 1:
“सिमटा पंख साँझ की लाली” में ‘पंख’ का रूपक क्या दर्शाता है?
🔵 1️⃣ पक्षियों की थकान
🟣 2️⃣ संध्या का संकुचन
🟢 3️⃣ वृक्षों की शाखाएँ
🟡 4️⃣ पत्तों की झँझलाहट
✅ उत्तर: 2️⃣ संध्या का संकुचन
🟢 प्रश्न 2:
“ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख” पंक्ति में ‘ताम्रपर्ण’ अलंकार किस प्रकार का है?
🔵 1️⃣ उपमा
🟣 2️⃣ अनुप्रास
🟢 3️⃣ यमक
🟡 4️⃣ रूपक
✅ उत्तर: 2️⃣ अनुप्रास
🟢 प्रश्न 3:
“ज्योति स्तंभ-सा धँस सरिता में” में ‘ज्योति स्तंभ’ से क्या अभिप्राय है?
🔵 1️⃣ सूर्य की छाया
🟣 2️⃣ नदी की लहर
🟢 3️⃣ सूर्य का प्रतिबिंब
🟡 4️⃣ दीपक की लौ
✅ उत्तर: 3️⃣ सूर्य का प्रतिबिंब
🟢 प्रश्न 4:
“अनिल पिघलकर सलिल, सलिल ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल” में मुख्य अलंकार कौन सा है?
🔵 1️⃣ उत्प्रेक्षा
🟣 2️⃣ मानवीकरण
🟢 3️⃣ अनुप्रास
🟡 4️⃣ उपमा
✅ उत्तर: 1️⃣ उत्प्रेक्षा
🟢 प्रश्न 5:
“लौट पैंठ से व्यापारी भी जाते घर, उस पार नाव पर” पंक्ति से कौन सा दृश्य उद्घाटित होता है?
🔵 1️⃣ व्यापारी घर पर सोते हैं
🟣 2️⃣ व्यापारी नाव से लौटते हैं
🟢 3️⃣ व्यापारी खेतों में काम करते हैं
🟡 4️⃣ व्यापारी बाजार सजाते हैं
✅ उत्तर: 2️⃣ व्यापारी नाव से लौटते हैं
✏️ लघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)
🟠 प्रश्न 6:
“धूपछाँह के रंग की रेती अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित” में ‘सर्पांकित’ का क्या अर्थ है?
🔵 उत्तर: इसका अर्थ है कि हवा की लहरों से रेत पर बने निशान साँप की आकृति जैसे प्रतीत होते हैं।
🟠 प्रश्न 7:
“बगुलों-सी वृद्धाएँ विधवाएँ जप ध्यान में मगन” का भाव स्पष्ट कीजिए।
🔵 उत्तर: संध्या के बाद गाँव की वृद्धाएँ और विधवाएँ तट पर बैठकर शांत वातावरण में ध्यान और जप में लीन रहती हैं।
🟠 प्रश्न 8:
“शंख घट बजते मंदिर में, लहरों में होता लय-कंपन” से क्या तात्पर्य है?
🔵 उत्तर: मंदिर के शंख और घंटियों की ध्वनि तथा नदी की तरंगों का कंपन मिलकर एक सुंदर और शांत लयात्मक वातावरण उत्पन्न करते हैं।
🟠 प्रश्न 9:
“स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज किरणों की बादल-सी जलकर” में ‘गोरज’ का क्या संकेत है?
🔵 उत्तर: यहाँ ‘गोरज’ सूर्य की सुनहरी किरणों का प्रतीक है जो बादलों की तरह आकाश में फैल जाती हैं।
🟠 प्रश्न 10:
“अनिल पिघलकर सलिल” में कौन सा अलंकार छायावाद की प्रवृत्ति दर्शाता है?
🔵 उत्तर: इसमें मानवीकरण अलंकार है, जिससे हवा को पिघलने जैसी मानवीय विशेषता दी गई है।
📜 मध्यम उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)
🔴 प्रश्न 11:
कविता का ग्रामीण परिवेश कैसे उभरकर आता है?
🔵 उत्तर:
कविता में संध्याकालीन ग्रामीण वातावरण अत्यंत जीवंतता से चित्रित हुआ है। सूर्यास्त के समय की लालिमा, नदी का शांत प्रवाह, लौटते हुए किसान, व्यापारी और पशु, मंदिर की घंटियों की ध्वनि तथा वृद्धाओं का ध्यान-योग—all मिलकर गाँव के दैनिक जीवन को प्रकट करते हैं। यह सब मिलकर एक शांत, सरल और प्राकृतिक ग्रामीण परिवेश को उजागर करते हैं।
🔴 प्रश्न 12:
कविता में अलंकारों की भूमिका क्या है?
🔵 उत्तर:
कविता में अलंकारों का प्रयोग सौंदर्य, संवेदना और संगीतात्मकता को बढ़ाता है। अनुप्रास (‘ताम्रपर्ण पीपल’), उत्प्रेक्षा (‘गति द्रव खो बन गया लवोपल’), मानवीकरण (‘अनिल पिघलकर सलिल’) और रूपक जैसे अलंकारों से दृश्य अधिक जीवंत हो जाते हैं। इनसे कवि की छायावादी शैली में सौंदर्यबोध, लय और गहराई का समावेश होता है।
🔴 प्रश्न 13:
कविता का केंद्रीय भाव संक्षेप में लिखिए।
🔵 उत्तर:
कविता में ढलती संध्या के पश्चात् प्रकृति और मानवीय जीवन का सुंदर संगम चित्रित है। बदलते रंग, बहती नदी, लौटते जन-जीव और ध्यानमग्न विधवाएँ मिलकर जीवन की निरंतरता और शांति का बोध कराते हैं। कविता यह संदेश देती है कि प्रकृति और मानव जीवन में समरसता ही जीवन की सच्ची सुंदरता है।
🪶 विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (4.5 अंक)
🟣 प्रश्न 14:
“संध्या के बाद” कविता में प्रकृति और मानव जीवन का समन्वय 110 शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
🔶 उत्तर:
“संध्या के बाद” कविता संध्याकालीन समय में प्रकृति और मानव जीवन के सुंदर संगम का चित्र प्रस्तुत करती है। सूर्यास्त की लालिमा वृक्षों पर पंखों की तरह सिमटती है और नदी में सूर्य का प्रतिबिंब डूब जाता है। हवा की लहरें रेत पर सर्पाकार रेखाएँ बनाती हैं। गाँव के लोग दिनभर के कार्यों से लौटते हैं, मंदिरों में शंख और घंटियाँ बजती हैं, वृद्धाएँ ध्यान में लीन होती हैं। यह सब दृश्य मिलकर एक शांत और गहन वातावरण बनाते हैं। कविता दिखाती है कि जीवन और प्रकृति के परिवर्तनशील चक्र में गहराई, शांति और सौंदर्य विद्यमान है।
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अतिरिक्त ज्ञान
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दृश्य सामग्री
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