Class 11, HINDI COMPULSORY

Class 11 : हिंदी अनिवार्य – Lesson 2 मियां नसीरुद्दीन

संक्षिप्त लेखक परिचय

🖋️ कृष्णा सोबती – लेखक परिचय (120 शब्दों में):

कृष्णा सोबती हिंदी साहित्य की प्रसिद्ध और प्रखर कथाकार थीं। उनका जन्म 18 फरवरी 1925 को गुजरात (अब पाकिस्तान में) हुआ था। उन्होंने भारतीय समाज की बदलती संवेदनाओं, स्त्री मनोविज्ञान और भाषा के विविध रंगों को अपनी रचनाओं में सशक्त रूप से व्यक्त किया। उनकी लेखनी में प्रामाणिकता, साहस और विद्रोह की धारा स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं – जिंदगीनामा, मित्रो मरजानी, डार से बिछुड़ी, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान आदि। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार (1980) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (2017) से सम्मानित किया गया। उनकी भाषा में पंजाबी, उर्दू और देशज शब्दों की जीवंतता मिलती है। उनका निधन 25 जनवरी 2019 को हुआ। वे आज भी साहित्यिक नवोन्मेष की प्रतीक मानी जाती हैं।

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पाठ का विश्लेषण  एवं  विवेचन



📘 ‘मियाँ नसीरुद्दीन’ पाठ की सूक्ष्म व्याख्या (लगभग 750 शब्दों में):
कृष्णा सोबती द्वारा रचित ‘मियाँ नसीरुद्दीन’ एक जीवंत शब्दचित्र है, जिसमें दिल्ली के गढ़ैया मुहल्ले के एक खानदानी नानबाई मियाँ नसीरुद्दीन की व्यक्तिगत गरिमा, कला पर गर्व, और बदलते समाज की उपेक्षा का सशक्त चित्रण है। यह रचना लेखिका के ‘हम-हशमत’ संग्रह से ली गई है।
लेखिका की मुलाकात मियाँ से अचानक उस समय होती है जब वह जामा मस्जिद के पास एक तंग गली से गुजर रही होती हैं। उन्हें एक दुकान से आटे के सानने की आवाज आती है जो उनकी जिज्ञासा को उत्तेजित करती है। भीतर झाँकने पर उन्हें एक गंभीर, आत्मविश्वास से भरे व्यक्ति मिलते हैं — यही हैं मियाँ नसीरुद्दीन।


मियाँ का व्यक्तित्व गंभीर, गर्वीला और आत्मसम्मान से भरा हुआ है। उनकी बातों और मुद्राओं में शानदार व्यंग्य है। वे बीड़ी पीते हुए लेखिका से बातचीत करते हैं और यह दर्शाते हैं कि वे अपने पेशे को न केवल कला मानते हैं बल्कि उसे एक विरासत के रूप में देखते हैं। वे छप्पन प्रकार की रोटियाँ बनाना जानते हैं और दावा करते हैं कि “खानदानी नानबाई कुएँ में भी रोटी पका सकता है।”
जब लेखिका उनसे उनके कौशल का स्रोत पूछती हैं तो वे क्रोधित हो उठते हैं, क्योंकि उनके अनुसार यह हुनर उन्हें अपने पिता और दादा से विरासत में मिला है। वे गर्व से अपने पिता मियाँ बरकत शाही और दादा मियाँ कल्लन का नाम लेते हैं जो उस मुहल्ले के प्रसिद्ध नानबाई थे।
मियाँ की बातों में गहराई और परंपरा का ठाठ है। वे शिक्षा को व्यावहारिकता से जोड़ते हैं और मानते हैं कि काम करके ही सीख मिलती है, उपदेशों से नहीं। उनका उदाहरण कि जैसे बच्चा मदरसे में अलिफ, बे, जीम से शुरू करता है, वैसे ही नानबाई पहले बर्तन मांजने से शुरू करता है — व्यवहारिक ज्ञान की परिभाषा है।


मियाँ अपनी बुजुर्ग पीढ़ी के गौरव को इस प्रकार बताते हैं कि उनके पूर्वजों ने बादशाह के लिए ऐसी रोटी बनाई थी जो न आग से पकी, न पानी से बनी। परंतु जब लेखिका बादशाह का नाम पूछती हैं, तो वे टाल जाते हैं और व्यंग्य में कहते हैं – “बहादुरशाह जफर ही लिख लो!”
पाठ का सबसे मार्मिक हिस्सा वह है जब मियाँ अपनी आखिरी बीड़ी सुलगाते हुए कहते हैं:
“उतर गए वे जमाने… और गए वे कद्रदान… अब क्या रखा है, निकाली तंदूर से, निगली और हजम!”
यह वाक्य आज के उपभोक्तावादी समाज की कला के प्रति असंवेदनशीलता को दर्शाता है। जहाँ पहले कारीगरों की कला की सराहना होती थी, वहीं अब सिर्फ तेज़ उपभोग और भूल का चलन है।
कृष्णा सोबती ने नसीरुद्दीन के बहाने उन सभी शिल्पकारों, कलाकारों और पारंपरिक कामगारों को स्वर दिया है जो समय के साथ हाशिए पर चले गए हैं, लेकिन जिनके भीतर अभी भी गर्व, गरिमा और हुनर की गहराई है।

📚 ‘मियाँ नसीरुद्दीन’ पाठ का सारांश (लगभग 250 शब्दों में):
‘मियाँ नसीरुद्दीन’ कृष्णा सोबती द्वारा रचित एक प्रभावशाली शब्दचित्र है जिसमें एक खानदानी नानबाई मियाँ नसीरुद्दीन के व्यक्तित्व, स्वभाव और कला पर गर्व को चित्रित किया गया है।
लेखिका की मुलाकात जामा मस्जिद के पास गढ़ैया मोहल्ले में मियाँ नसीरुद्दीन से होती है। वह एक छोटी अंधेरी दुकान में छप्पन प्रकार की रोटियाँ बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे खुद को खानदानी नानबाई मानते हैं और अपनी कला को कड़ी मेहनत और परंपरा का फल बताते हैं। वे कहते हैं कि यह हुनर उन्हें पिता मियाँ बरकत शाही और दादा मियाँ कल्लन से विरासत में मिला है।


मियाँ अखबारनवीसों और नसीहतों को बेकार मानते हैं। उनका मानना है कि सीखने का सही तरीका केवल काम करना है, न कि उपदेश सुनना।
अपनी खानदानी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए मियाँ बताते हैं कि उनके पूर्वजों ने बादशाह के लिए ऐसी रोटी बनाई थी जो न आग से पकी, न पानी से बनी। लेकिन जब उनसे बादशाह का नाम पूछा जाता है तो वे खीजते हुए कहते हैं – “बहादुरशाह जफर ही लिख लो!”


पाठ के अंत में मियाँ कहते हैं —
“अब क्या रखा है… निकाली तंदूर से – निगली और हजम!”
यह वाक्य दर्शाता है कि आज के समय में लोग कलाओं की कद्र नहीं करते। यह रचना परंपरागत कारीगरों की दुर्दशा, अतीत का गौरव, और समकालीन उपेक्षा को एक साथ उजागर करती है।

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पाठ्यपुस्तक के प्रश्न



🔷 1. मियाँ नसीरुद्दीन को नानबाइयों का मसीहा क्यों कहा गया है?
उत्तर: मियाँ नसीरुद्दीन को नानबाइयों का मसीहा इसलिए कहा गया है क्योंकि वे मसीहाई अंदाज में रोटी पकाने की कला का बखान करते हैं। वे छप्पन तरह की रोटियाँ बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं और अपने पेशे को कला मानते हैं। उनका खानदान वर्षों से इस काम में लगा हुआ है। वे रोटी बनाने को कला मानते हैं तथा स्वयं को उस्ताद कहते हैं। उनका बातचीत करने का ढंग भी महान कलाकारों जैसा है। अन्य नानबाई सिर्फ रोटी पकाते हैं जबकि वे अपने काम को कलात्मक दृष्टि से देखते हैं।

🔷 2. लेखिका मियाँ नसीरुद्दीन के पास क्यों गई थीं?
उत्तर: लेखिका मियाँ नसीरुद्दीन के पास इसलिए गई थी क्योंकि वह रोटी बनाने की कारीगरी के बारे में जानकारी हासिल करके दूसरे लोगों को बताना चाहती थी। मियाँ नसीरुद्दीन छप्पन तरह की रोटियाँ बनाने के लिए मशहूर थे। वह उनकी इस कारीगरी का रहस्य भी जानना चाहती थी। उन्होंने मियाँ नसीरुद्दीन के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था और एक पत्रकार होने के नाते वह उनकी कला के बारे में जानकारी प्राप्त कर उसे प्रकाशित करना चाहती थी।

🔷 3. बादशाह के नाम का प्रसंग आते ही लेखिका की बातों में मियाँ नसीरुद्दीन की दिलचस्पी क्यों खत्म होने लगी?
उत्तर: बादशाह के नाम का प्रसंग आते ही मियाँ नसीरुद्दीन की दिलचस्पी लेखिका की बातों में इसलिए कम होने लगी क्योंकि इस प्रसंग के तथ्यों का उन्हें ठीक से ज्ञान नहीं था। उन्होंने यह सभी बातें अपने पूर्वजों से सिर्फ सुनी थीं। बादशाह का बावर्ची होने की बात उन्होंने अपने परिवार की बड़ाई करने के लिए यूं ही कह दी थी। सच्चाई यह थी कि वे किसी बादशाह का नाम नहीं जानते थे और न ही उनके परिवार का किसी बादशाह से वास्तविक संबंध था। जब लेखिका ने इस प्रकार के प्रश्न पूछे तो मियाँ मुश्किल में पड़ गए थे।

🔷 4. ‘मियाँ नसीरुद्दीन के चेहरे पर किसी दबे हुए अंधड़ के आसार देख यह मज़मून न छेड़ने का फैसला किया’ — इस कथन के पहले और बाद के प्रसंग का उल्लेख करते हुए इसे स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: बादशाह के नाम का प्रसंग आते ही मियाँ नसीरुद्दीन की दिलचस्पी लेखिका की बातों में खत्म होने लगी। उसके बाद वे किसी को भट्टी सुलगाने के लिए पुकारने लगे। तभी लेखिका के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे उनके कारीगर हैं। तभी लेखिका के मन में आया कि पूछ लें आपके बेटे-बेटियाँ हैं, पर उनके चेहरे पर बेरुखी देखी तो उन्होंने उस विषय में कुछ न पूछना ही ठीक समझा। लेखिका मियाँ नसीरुद्दीन के खानदान और उनसे संबंधित सभी जानकारी प्राप्त करना चाहती थी, लेकिन मियाँ लेखिका के सवालों से ऊब चुके थे। उन्हें लगता था कि पत्रकार लोग निठल्ले होते हैं और उनकी आवाज में रूखाई आ गई थी।

🔷 5. पाठ में मियाँ नसीरुद्दीन का शब्द-चित्र लेखिका ने कैसे खींचा है?
उत्तर: मियाँ नसीरुद्दीन सत्तर वर्ष की आयु के हैं। लेखिका ने जब दुकान के अंदर झाँका तो पाया मियाँ चारपाई पर बैठे बीड़ी का मजा़ ले रहे हैं। मौसमों की मार से पका चेहरा, आँखों में काइयाँ भोलापन और पेशानी पर मँजे हुए कारीगर के तेवर। यह वर्णन उनके व्यक्तित्व को साकार रूप प्रदान करता है। लेखिका ने उनके शारीरिक रूप के साथ-साथ उनके स्वभाव और बातचीत के अंदाज का भी जीवंत चित्रण किया है। इस प्रकार का शब्द चित्र पाठक के समक्ष नायक को साकार वर्णन करता है।

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अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न



🔷 1. मियाँ नसीरुद्दीन की दुकान पर लेखक सबसे पहले क्या सुनकर रुके थे?
(A) रोटी सेंकने की खुशबू
(B) आटे के सानने की आवाज़
(C) ओवन की गर्मी
(D) बच्चों की चहचहाहट
उत्तर: B) आटे के सानने की आवाज़

🔷 2. मियाँ नसीरुद्दीन अखबारनवीसों को क्यों “निठल्ले” कहते हैं?
(A) उन्हें रोटी बनाना नहीं आता
(B) वे काम से ज्यादा लिखने-पढ़ने में व्यस्त रहते हैं
(C) वे भूखे रहते हैं
(D) वे दुकान में घुसते समय शिष्टाचार नहीं अपनाते
उत्तर: B) वे काम से ज्यादा लिखने-पढ़ने में व्यस्त रहते हैं

🔷 3. मियाँ ने अपनी कला की परंपरा का श्रेय किसे दिया?
(A) स्वयं के अनुभव को
(B) अपने वालिद-उस्ताद को
(C) स्थानीय राहगीरों को
(D) ब्रिटिश अधिकारियों को
उत्तर: B) अपने वालिद-उस्ताद को

🔷 4. जब लेखिका ने बादशाह का नाम पूछा, तो मियाँ की प्रतिक्रिया क्या थी?
(A) गर्व से बताया कि वे जफर के बावर्ची थे
(B) चुप हो गए और बातचीत टाल दी
(C) गुस्से में भट्टी सुलगाने का आदेश दिया
(D) हँसते हुए बात आगे बढ़ा दी
उत्तर: C) गुस्से में भट्टी सुलगाने का आदेश दिया

🔷 5. पाठ के अंत में मियाँ ने किस बात पर पीड़ा व्यक्त की?
(A) वे बूढ़े हो चले हैं
(B) अब कोई उनकी रोटियाँ नहीं खरीदता
(C) पहले कढ़ाई और तंदूर दोनों काम आते थे
(D) अब लोग पकाने-खाने की कद्र नहीं करते
उत्तर: D) अब लोग पकाने-खाने की कद्र नहीं करते

🔷 6. मियाँ नसीरुद्दीन को ‘नानबाइयों का मसीहा’ क्यों कहा गया?
उत्तर: क्योंकि वे छप्पन प्रकार की अत्यंत महीन रोटियाँ बनाने के अपने खानदानी हुनर पर गर्व करते थे और उसे कला मानते थे।

🔷 7. लेखिका मियाँ के पास क्या जानने आई थीं?
उत्तर: वे रोटी बनाने की कारीगरी और उसके रहस्यों को जानकर दूसरों को बताना चाहती थीं।

🔷 8. मियाँ के चेहरे पर “मौसमों की मार से पका” प्रभाव क्या दर्शाता है?
उत्तर: यह उनके अनुभव, कड़ी मेहनत और कालान्तर से शिल्प पर पकड़ को दर्शाता है।

🔷 9. लेखिका ने मियाँ का शब्दचित्र क्यों खींचा?
उत्तर: पाठक को उनके व्यक्तित्व—स्वाभिमानी, गर्वीले और अनुभवी कारीगर—की जीवंत छवि दिखाने के लिए।

🔷 10. पाठ में “निकाली तंदूर से–निगली और हजम!” का क्या अर्थ है?
उत्तर: यह व्यथा है कि तंदूर की आंच से उनकी कला भले तली जाए पर उसका सम्मान समाप्त हो गया है।

🔷 11. मियाँ नसीरुद्दीन का अखबारनवीसों को ‘निठल्ला’ कहने का कारण क्या है, और यह उनकी सोच के बारे में क्या बताता है?
उत्तर: मियाँ का मानना था कि लेखन-पढ़न से कला नहीं आती, बल्कि काम से आती है। अखबारनवीस, जो स्थिर बैठे-बैठे लिखते-पढ़ते रहते हैं, उनके नजरिए में कला को व्यावहारिक मेहनत से देखना चाहिए। यह उनके व्यावहारिक, कर्म प्रधान दृष्टिकोण और आत्मनिर्भरता को दर्शाता है।

🔷 12. मियाँ ने खानदानी परंपरा को कैसे उजागर किया, और इसका पाठ में क्या महत्व है?
उत्तर: उन्होंने बताया कि यह हुनर उन्होंने अपने पिता (वालिद-उस्ताद) से सीखा है, और उनके पूर्वज सलामत बादशाह के लिए विशेष व्यंजन बना चुके थे। इससे पाठ में पारिवारिक विरासत और पीढ़ी-दर-पीढ़ी कला सिद्ध करने का महत्व स्पष्ट होता है।

🔷 13. लेखिका ने मियाँ की व्यथा को किस प्रकार प्रस्तुत किया, और इससे पाठक को क्या संदेश मिलता है?
उत्तर: लेखिका ने अंत में उनकी पीड़ा—“अब लोग पकाने-खाने की कद्र नहीं करते”—उद्धृत करके आधुनिक समाज की उदासीनता और पारंपरिक कारीगरों की दुर्दशा का भावोन्मुख चित्र प्रस्तुत किया। इससे पाठक को यह संदेश मिलता है कि लोककला और कारीगरों की उपेक्षा समाज की सांस्कृतिक हानि है।

🔷 14. मियाँ का स्वाभिमान और गर्व पाठ में कैसे परिलक्षित होता है?
उत्तर: वे स्वयं को उस्ताद कहते हैं, रोटी पकाने को कला मानते हैं, और किसी भी प्रलोभन या दिखावे में नहीं उलझते। उनका ठाठ-बाट, चारपाई पर बीड़ी पीना और शब्दों का चयन—सबमें आत्मविश्वास झलकता है, जो उनकी शिल्प पर अटूट श्रद्धा को दर्शाता है।

🔷 15. “‘मियाँ नसीरुद्दीन’ पाठ में कृष्णा सोबती ने पारंपरिक शिल्पकारों के आत्मसम्मान और समाज की उपेक्षा के द्वंद्व को कैसे प्रस्तुत किया है?”
उत्तर: कृष्णा सोबती का ‘मियाँ नसीरुद्दीन’ पारंपरिक शिल्प और उसमें लगे कारीगर की गर्वोन्मुख पहचान तथा तदनंतर समाज की उदासीनता के द्वंद्व को सूक्ष्मता से उकेरता है। मियाँ नसीरुद्दीन, स्वयं को ‘नानबाइयों का मसीहा’ कहकर और छप्पन प्रकार की महीन रोटियाँ बनाकर अपनी कला का यथार्थ उभारते हैं। उनका स्वाभिमानी संवाद—“काम करने से आता है, नसीहतों से नहीं”—उनकी कर्मप्रधान मानसिकता को स्पष्ट करता है। जब लेखिका बादशाह के नाम का प्रसंग लाती हैं, तो मियाँ के रुख में अचानक परिवर्तन—भट्टी सुलगाने के आदेश और रूखापन—उनके गौरव की रक्षा के लिए आत्मरक्षा है, ताकि झूठी बढ़ाई उनकी कला को धब्बा न लगा दे। लेखिका का वर्णनात्मक भाषा-शैली का उपयोग मियाँ के व्यक्तित्व को चारपाई पर बीड़ी पीते, मौसमों की मार झेलते चेहरे और तेजतर्रार निगाहों से प्रस्तुत करता है। यह चित्रण पाठक को एक अनुभवी कारीगर की गरिमामयी छवि दिखाता है। अंत में मियाँ की व्यथा—“अब लोग पकाने-खाने की कद्र नहीं करते”—लोकजागृति की असफलता और शिल्पकारों की उपेक्षा को उजागर करती है।

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अतिरिक्त ज्ञान

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दृश्य सामग्री

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