Class 11 : हिंदी अनिवार्य – Lesson 16 आओ मिलके बचाए
संक्षिप्त लेखक परिचय
📘 लेखक परिचय — निर्मला पुतुल
🔵 निर्मला पुतुल का जन्म 6 मार्च 1972 को झारखंड के दुमका जिले के दुधनी कुरुवा ग्राम में एक आदिवासी संताली परिवार में हुआ।
🟢 प्राथमिक शिक्षा गाँव में तथा दुमका के स्थानीय विद्यालयों में पूरी की।
🟡 इसके बाद उन्होंने नर्सिंग में डिप्लोमा एवं इग्नू से राजनीति शास्त्र में स्नातक उपाधि ग्रहण की।
🔴 उनकी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत 1990 के दशक में हुई, जिसमें उन्होंने आदिवासी जीवन की व्यथा, विस्थापन, और पर्यावरणीय विडंबनाओं पर केंद्रित कविताएँ लिखीं।
🟢 उनकी प्रसिद्ध कृति ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ (2015) में प्रकृति संरक्षण, जनभागीदारी और सामाजिक संवाद का संदेश सरल परंतु मार्मिक छंदों में प्रस्तुत किया गया है।
🟡 इस कृति में संताली लोकधुनों की गूंज और हिंदी की सहज भाषा का सुंदर समन्वय मिलता है।
🔴 उनकी शैली में आदिवासी लोकसंस्कृति का प्रभाव, स्त्री–संवेदनशीलता, और विस्थापित समुदायों की पीड़ा का गहन चित्रण प्रमुख है।
🟢 उनकी कविताओं में दृढ़ व्यंग्य, आलोचनात्मक दृष्टि, उम्मीद और संघर्ष का भाव समाहित रहता है।
💠 प्रमुख कृतियाँ:
आओ, मिलकर बचाएँ (2015), अपने घर की तलाश में (2008), फूटेगा नया विद्रोह (2012), नगाड़े की तरह बजते शब्द (2020)
💠 सम्मान:
युवा सम्मान (भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता), विनोबा भावे सम्मान (नागरी लिपि परिषद, दिल्ली), झारखंड सरकार राजकीय साहित्य सम्मान
💠 विचारधारा:
आदिवासी विमर्श, प्रकृति–संवर्धन, स्त्री–संवेदना, समाज–चेतना
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पाठ का विश्लेषण एवं विवेचन
📖 कवयित्री परिचय
🌿 निर्मला पुतुल का जन्म 1972 में झारखंड के दुमका ज़िले में एक संथाली आदिवासी परिवार में हुआ। उनका प्रारंभिक जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा। उन्होंने नर्सिंग में डिप्लोमा किया और बाद में इग्नू से स्नातक की डिग्री प्राप्त की।
📚 उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं — नगाड़े की तरह बजते शब्द और अपने घर की तलाश में।
🎯 कविता का सारांश
‘आओ मिलकर बचाएं’ कविता में कवयित्री ने आदिवासी संस्कृति, प्रकृति और मानवीय मूल्यों को शहरीकरण और आधुनिकता के दुष्प्रभाव से बचाने का आह्वान किया है। यह कविता मूल रूप से संथाली भाषा में लिखी गई थी जिसका हिंदी अनुवाद अशोक सिंह ने किया। कवयित्री संथाली समाज के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को बेबाकी से प्रस्तुत करती हैं।
🏘️ बस्तियों को बचाना
🟣 शहरीकरण का प्रभाव
🏠 “आओ मिलकर बचाएं अपनी बस्तियों को नंगी होने से” – शहरी सभ्यता के प्रभाव से बस्तियां वृक्षविहीन और पर्यावरण रहित होती जा रही हैं।
🌫️ “शहर की आबो-हवा से बचाएं उसे” – शहर की प्रदूषित जलवायु से अपनी बस्तियों को बचाना है।
🍷 “बचाएं डूबने से पूरी की पूरी बस्ती को हड़िया में” – शराब में डूबने से बस्ती को बचाना है; शराब की लत समाज की बड़ी समस्या है।
🎨 संथाली संस्कृति को बचाना
🟠 अस्मिता की रक्षा
🌈 “अपने चेहरे पर संथाल परगना की माटी का रंग” – अपनी मिट्टी की पहचान को बनाए रखना चाहिए।
🗣️ “भाषा में झारखंडीपन” – भाषा में झारखंड की पहचान बनी रहनी चाहिए।
🔥 “ठंडी होती दिनचर्या में जीवन की गर्माहट” – जीवन में जोश और उत्साह बनाए रखना है।
🟡 स्वभाव की विशेषताएं
💚 “मन का हरापन, भोलापन दिल का” – मन की खुशियां और भोलापन बनाए रखना चाहिए।
💪 “अक्खड़पन, जुझारूपन भी, भीतर की आग” – संघर्ष और जुझारूपन को जीवित रखना चाहिए।
🏹 “धनुष की डोरी, तीर का नुकीलापन, कुल्हाड़ी की धार” – आदिवासी संस्कृति की इन प्रतीकों को बचाना है।
🌲 प्रकृति को बचाना
🟢 प्राकृतिक संपदा
🌬️ “जंगल की ताज़ा हवा, नदियों की निर्मलता” – जंगलों की शुद्ध हवा और नदियों की पवित्रता को सुरक्षित रखना है।
⛰️ “पहाड़ों का मौन, गीतों की धुन” – पहाड़ों की शांति और लोकगीतों की ध्वनि बचानी है।
🌾 “मिट्टी का सोंधापन, फसलों की लहलहाहट” – मिट्टी की खुशबू और फसलों की हरियाली को बचाना है।
🎭 मानवीय आवश्यकताएं
🔴 जीवन की ज़रूरतें
💃 “नाचने के लिए खुला आंगन, गाने के लिए गीत” – अभिव्यक्ति के साधन बचाने हैं।
😄 “हंसने के लिए थोड़ी सी खिलखिलाहट” – जीवन में खुशियां बनाए रखनी हैं।
😢 “रोने के लिए मुट्ठी भर एकांत” – दुख व्यक्त करने के लिए एकांत बचाना है।
🔵 सभी के लिए
👶 “बच्चों के लिए मैदान” – बच्चों के खेलने की जगह बचानी है।
🐄 “पशुओं के लिए हरी-हरी घास” – पशुओं के चारागाह बचाने हैं।
👴 “बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शांति” – वृद्धों के लिए शांत वातावरण सुरक्षित रखना है।
💔 अविश्वास के दौर में
🟣 विश्वास और आशा
🤝 “और इस अविश्वास भरे दौर में थोड़ा सा विश्वास” – संदेह और द्वेष के बीच विश्वास बचाना है।
🌟 “थोड़ी सी उम्मीद, थोड़े से सपने” – आशा और सपनों को जीवित रखना है।
🟠 अंतिम आह्वान
✊ “आओ मिलकर बचाएं कि इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है अब भी हमारे पास!” – आज भी बहुत कुछ ऐसा है जिसे बचाया जा सकता है, इसलिए सामूहिक प्रयास ज़रूरी है।
🎯 कविता का संदेश
🟢 आदिवासी संस्कृति की रक्षा
🎭 संथाली संस्कृति की विशिष्टता, भाषा, परंपरा और पहचान को बचाना अत्यंत आवश्यक है।
🟠 शहरीकरण का विरोध
🏙️ शहरी सभ्यता का अंधानुकरण आदिवासी समाज को नष्ट कर रहा है; शराब, अशिक्षा और कुरीतियां बढ़ रही हैं।
🟡 प्रकृति संरक्षण
🌳 जंगल, नदी, पहाड़ और मिट्टी को बचाना पर्यावरण संरक्षण के लिए अनिवार्य है।
🔴 मानवीय मूल्यों की रक्षा
💖 विश्वास, आशा, सपने, खुशी और एकांत जैसे मानवीय मूल्यों को सुरक्षित रखना चाहिए।
🔵 सामूहिक प्रयास
🤝 “आओ मिलकर” में सामूहिकता और एकजुटता का सशक्त संदेश निहित है।
🎨 काव्य सौंदर्य
📜 भाषा: संथाली से हिंदी में अनुवादित, सरल, सहज और बोलचाल की भाषा।
🌱 शैली: आह्वानात्मक शैली – “आओ मिलकर बचाएं” की पुनरावृत्ति; सूची शैली – बचाने योग्य तत्वों की सूची।
💫 विशेषताएं: आत्मीयता, यथार्थवाद, गहरी संवेदनशीलता और संस्कृति से गहरा जुड़ाव।
🏁 निष्कर्ष
‘आओ, मिलकर बचाएँ’ आदिवासी अस्मिता, पर्यावरण संरक्षण और मानवीय मूल्यों की रक्षा का शक्तिशाली आह्वान है। निर्मला पुतुल ने संथाली समाज की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए शहरीकरण के खतरों से चेताया है। यह कविता हमें सिखाती है कि आज के वैश्वीकरण और आधुनिकता के दौर में भी प्रकृति और संस्कृति को मिलकर बचाना ही हमारी सच्ची ज़िम्मेदारी है।
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पाठ्यपुस्तक के प्रश्न
🟠 प्रश्न 1: मिट्टी का रंग प्रयोग करते हुए किस बात की ओर संकेत किया गया है?
🔵 उत्तर: कवयित्री ने “मिट्टी का रंग” का प्रयोग धरती, अपनी जड़ों और मूल पहचान से जुड़ाव के प्रतीक के रूप में किया है। यह संकेत करता है कि मनुष्य को अपनी संस्कृति, परंपरा और धरती से जुड़े रहना चाहिए। मिट्टी का रंग हमारी अस्मिता, जीवन का आधार और हमारी सामूहिक विरासत का प्रतीक है। इसे बचाना अपने अस्तित्व और आत्म-संस्कार को सुरक्षित रखना है।
🟠 प्रश्न 2: भाषा में झारखंडीपन से क्या अभिप्राय है?
🔵 उत्तर: भाषा में “झारखंडीपन” से आशय स्थानीय जीवन, लोक संस्कृति, परंपराओं, रीति-रिवाज़ों और जनजीवन की सादगी से है। कवयित्री ने भाषा के माध्यम से झारखंड की मिट्टी, उसकी लोकधारा और वहाँ के लोगों की भावनाओं को प्रकट किया है। यह क्षेत्रीयता कविता को प्रामाणिकता प्रदान करती है और पाठक को उस जनजीवन से जोड़ती है।
🟠 प्रश्न 3: दिल के भोलेपन के साथ-साथ अक्खड़पन और जुझारूपन को भी बचाने की आवश्यकता पर क्यों बल दिया गया है?
🔵 उत्तर: कवयित्री का मानना है कि केवल भोलेपन से समाज नहीं चलता। जीवन में संघर्ष, अन्याय और शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए जुझारूपन और अक्खड़पन भी ज़रूरी है। भोलेपन से संवेदनशीलता बनी रहती है, जबकि जुझारूपन और अक्खड़पन से व्यक्ति अन्याय के ख़िलाफ़ डटकर खड़ा हो सकता है। दोनों के संतुलन से ही व्यक्ति और समाज सशक्त और जीवंत बनता है।
🟠 प्रश्न 4: प्रस्तुत कविता आदिवासी समाज की किन बुराइयों की ओर संकेत करती है?
🔵 उत्तर: कविता आदिवासी समाज में बढ़ते हुए आत्म-विस्मरण, परंपराओं से दूर होते जाने और बाहरी प्रभावों के अंधानुकरण की बुराइयों की ओर संकेत करती है। यह भी दर्शाती है कि किस प्रकार औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और लालच के कारण उनकी संस्कृति, भाषा और अस्तित्व संकट में है। कवयित्री समाज को चेतावनी देती हैं कि यदि इन बुराइयों को नहीं रोका गया, तो उनकी मौलिक पहचान समाप्त हो जाएगी।
🟠 प्रश्न 5: इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है – से क्या आशय है?
🔵 उत्तर: इस पंक्ति का आशय है कि आधुनिकता और विकास के दबाव में भी हमारी संस्कृति, परंपराएँ, लोक-संस्कार, पर्यावरण और संवेदनशीलता जैसे अनमोल तत्व अभी भी सुरक्षित हैं। इन्हें संरक्षित और सहेजने की ज़रूरत है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ अपनी जड़ों से जुड़ी रहें। कवयित्री हमें प्रेरित करती हैं कि हम सामूहिक प्रयासों से अपनी धरती, समाज और मानवीय मूल्यों को बचाएँ।
🟠 प्रश्न 6: निम्नलिखित पंक्तियों के काव्य-सौंदर्य को उद्घाटित कीजिए –
(क) ठंडी होती दिनचर्या में / जीवन की गहमागहमी
🔵 उत्तर: इन पंक्तियों में कवयित्री ने आधुनिक जीवन की नीरसता और संवेदनहीनता को उजागर किया है। “ठंडी दिनचर्या” निस्संग और एकरस जीवन का प्रतीक है, जबकि “गहमागहमी” उसमें जीवन और ऊर्जा भरने की संभावना को दर्शाती है। यह विरोधाभास कविता को प्रभावशाली और अर्थगर्भित बनाता है।
(ख) थोड़ा-सा विश्वास / थोड़ी-सी उम्मीद / थोड़े-से सपने / आओ, मिलकर बचाएँ।
🔵 उत्तर: इन पंक्तियों में कवयित्री ने सरल, सहज और प्रेरक भाषा में आशा और सामूहिक प्रयास का संदेश दिया है। “थोड़ा-सा” का दोहराव छोटी-छोटी बातों के बड़े परिवर्तन में योगदान देने की शक्ति को प्रकट करता है। इन पंक्तियों में लोकभावना, आशावाद और संघर्ष की प्रेरणा झलकती है।
🟠 प्रश्न 7: बस्तियों को शहर की किस आबो-हवा से बचाने की आवश्यकता है?
🔵 उत्तर: बस्तियों को शहर की लालच, कृत्रिमता, प्रदूषण, भौतिकवाद और संवेदनहीनता से बचाने की आवश्यकता है। शहरी जीवन के ये प्रभाव आदिवासी समाज की मौलिकता, सादगी और प्रकृति के साथ उसके सामंजस्य को नष्ट कर रहे हैं। कवयित्री चाहती हैं कि इन बस्तियों को शहरीकरण की नकारात्मक प्रवृत्तियों से बचाकर उनकी संस्कृति और पहचान को सुरक्षित रखा जाए।
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अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न
🔵 बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQ)
🟢 प्रश्न 1
कवयित्री किसे बचाने का आह्वान करती हैं?
🟣 1. केवल प्रकृति को
🔵 2. आदिवासी संस्कृति और प्राकृतिक परिवेश को
🟢 3. केवल गाँव को
🟡 4. केवल भाषा को
✅ उत्तर: 2. आदिवासी संस्कृति और प्राकृतिक परिवेश को
🟢 प्रश्न 2
‘हड़िया’ क्या है?
🟣 1. एक प्रकार का अनाज
🔵 2. एक पारंपरिक पेय पदार्थ (शराब)
🟢 3. एक नृत्य
🟡 4. एक वाद्य यंत्र
✅ उत्तर: 2. एक पारंपरिक पेय पदार्थ (शराब)
🟢 प्रश्न 3
कवयित्री बस्तियों को किससे बचाना चाहती हैं?
🟣 1. प्राकृतिक आपदा से
🔵 2. शहरी आबोहवा और अपसंस्कृति से
🟢 3. युद्ध से
🟡 4. दुश्मनों से
✅ उत्तर: 2. शहरी आबोहवा और अपसंस्कृति से
🟢 प्रश्न 4
‘संथाल परगना की माटी का रंग’ से क्या आशय है?
🟣 1. मिट्टी का रंग
🔵 2. अपनी पहचान और संस्कृति
🟢 3. त्वचा का रंग
🟡 4. चेहरे का रंग
✅ उत्तर: 2. अपनी पहचान और संस्कृति
🟢 प्रश्न 5
कवयित्री के अनुसार अब भी क्या बचा है?
🟣 1. कुछ भी नहीं
🔵 2. बहुत कुछ
🟢 3. थोड़ा सा
🟡 4. सब कुछ
✅ उत्तर: 2. बहुत कुछ
🔵 लघु उत्तरीय प्रश्न
🟠 प्रश्न 6
कवयित्री ने बस्तियों को ‘नंगा’ होने से बचाने की बात क्यों कही?
💠 उत्तर: ‘नंगा’ होना पहचान, रीति-रिवाज और संस्कृति का क्षय है; शहरी प्रभाव से यही सबसे बड़ा खतरा है।
🟠 प्रश्न 7
‘भाषा में झारखंडीपन’ से क्या तात्पर्य है?
💠 उत्तर: संथाली व झारखंडी बोलियों का स्वाभिमान और उनकी स्थानीय धुन/लहजा—इन्हें सुरक्षित रखना।
🟠 प्रश्न 8
‘मन का हरापन’ क्यों बचाना है?
💠 उत्तर: हरापन यानी ताजगी, उल्लास, सकारात्मकता; दौड़-भाग की आधुनिकता इसे सूखा देती है।
🟠 प्रश्न 9
धनुष की डोरी और तीर का नुकीलापन बचाने का अर्थ?
💠 उत्तर: जुझारूपन, आत्मरक्षा, कौशल और सांस्कृतिक ताकत को अक्षुण्ण रखना।
🟠 प्रश्न 10
विश्वास, उम्मीद और सपनों को बचाने की आवश्यकता क्यों?
💠 उत्तर: ये ही समुदाय की ऊर्जा, दिशा और भविष्य के निर्माण की बुनियाद हैं।
🔵 मध्यम उत्तरीय प्रश्न
🔴 प्रश्न 11
कवयित्री ने किन प्राकृतिक तत्वों को बचाने का आह्वान किया है?
🔷 उत्तर: जंगलों की ताज़ी हवा, नदियों की निर्मल धार, पहाड़ों का शांत मौन, मिट्टी का सोंधापन, फसलों की लहलह—यानी समूचे पारिस्थितिकी तंत्र की जीवनदायिनी धरोहर।
🔴 प्रश्न 12
कवयित्री ने आदिवासी जीवन के कौन से सकारात्मक पक्ष उभारे हैं?
🔷 उत्तर: सादगी, भोलापन, मेहनतकशी, अक्खड़ जिजीविषा, प्रकृति-निष्ठ जीवन, लोकगीत-नृत्य की ऊष्मा और सामुदायिकता—जो उनकी अस्मिता का आधार हैं।
🔴 प्रश्न 13
‘हड़िया में डूबने’ से बचाने की बात क्यों?
🔷 उत्तर: परंपरा का हिस्सा होते हुए भी अति-सेवन व्यसन बनकर परिवार, श्रम-नीति और सामाजिक स्वास्थ्य को तोड़ता है; ऊर्जा को रचनात्मक दिशा में चाहिए।
🔵 विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
🟣 प्रश्न 14
‘आओ, मिलकर बचाएँ’ कविता का केंद्रीय भाव (लगभग 110 शब्द)
🔶 उत्तर: कविता आदिवासी अस्मिता और प्रकृति-संरक्षण का सामूहिक आह्वान है। शहरीकरण/अपसंस्कृति से बस्तियों के ‘नंगे’ होने—अर्थात संस्कृति, भाषा और रीति-रिवाज के क्षरण—का प्रतिवाद करते हुए कवयित्री संथाल परगना की माटी का रंग, झारखंडीपन, लोकधुन, जुझारूपन और मन का हरापन बचाने को कहती हैं। जंगल, नदी, पहाड़, मिट्टी और फसलें केवल संसाधन नहीं, जीवन-सांस्कृतिक रिश्ते हैं। हड़िया जैसे व्यसन से बचते हुए विश्वास, उम्मीद और सपनों का दीया जलाए रखना ज़रूरी है, क्योंकि “बहुत कुछ” अभी शेष है। कविता बताती है—पर्यावरण-संतुलन और सांस्कृतिक पहचान साथ-साथ बचेंगी तो समुदाय का भविष्य सुरक्षित रहेगा।
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अतिरिक्त ज्ञान
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दृश्य सामग्री
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